Tuesday 31 May 2011

पड़ोस का सर्द-गर्म युद्ध और भारतीय विदेश नीति

सुभाष धूलिया

आज भारत का सामना एक ऐसे पाकिस्तान से है जो इससे पहले कभी अस्तित्व में नहीं था. आज पाकिस्तान के साथ संबंधों में हार-जीत के अर्थ बदल चुकें हैं. अब एक दूसरे को कमजोर करने का मतलब खुद को कमजोर करना होगा. पाकिस्तान आज स्वयं से युद्धग्रस्त है और पाकिस्तान को लेकर भारत के हित इस इस रूप में दाँव पर लगे हैं कि पाकिस्तान के भीतर चल रहे युद्ध में किन ताकतों के विजय होती है. इस दौर में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य यही होना चाहिए की पाकिस्तान में ऐसी शक्तियों ताकत न मिले जिनकी राजनीति भारत-विरोधी उन्माद पर टिकी है.

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह सैनिक शक्ति आज बेबस है. आज हर पाकिस्तनी देशभक्त को शर्मशार और अपमानित होना चाहिए. शर्मशार इसलिए के दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी पांच सालों से उसके सिरहाने तले छिपा बैठा रहा और अपमानित इसलिए के अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. एक राष्ट्र का अपमानित और बेबस होने के अपने ही खतरे हैं. आज पाकिस्तान की इस हालत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार इसका सैनिक और खुफिया तंत्र है जिसके कुछ प्रभावशाली तबके धार्मिक उग्रवाद को पनाह देते रहे हैं . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ? पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता का नियंत्रण इन्ही 'सुरक्षित' हाथों में है जिन्होंने हर सामरिक युद्ध मैं पराजय झेली है और केवल आतंकवादी युद्धों में ही 'विजय' का दावा कर सकतें हैं . यही वह पाकिस्तानी सत्ता है जिसने इतिहास में हर संकट की घडी में राष्ट्रवाद के उन्माद की आड़ में सत्ता हड़पी और इस पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए भारत-विरोधी उन्माद का सहारा लिया. स्वाभातावा अमेरिकी आक्रमण के उपरांत राष्ट्रवाद का उफान आया है और एक बार फिर इस गुमराह राष्टवाद के घोड़े पर सवार होने की कोशिश करेगी जो पहले ही शुरू हो चुकी है और आने वाले दिनों में भारतीय सीमा और खास तौर से कश्मीर मैं सीमा पर झड़पें हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पाकिस्तान में आज के कशमश की स्तिथि होनी चाहिए. अगर पाक के एक देश के रूप में कोई भविष्य हैं तो भारत-विरोधी उन्माद की टक्कर में एक ऐसे विवेकशील नेतृत्व का अस्तित्व होना चाहेए जो भारत से सहयोग का रास्ता अपनाकर पाक को इस संकट से निकलने के लिए के लिए किसी रास्ते का निर्माण करे . पाकिस्तान का भविष्य इस कशमकश के परिणाम पर निर्भर करता है .

कुछ ख़ास ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण, भारत में भी एक प्रभावशाली पकिस्तान-विरोधी तबका अस्तित्व में रहा है जो समय समय पर पाकिस्तान के प्रति भारतीय नीति को प्रभावित करता रहा है. 9 /11 और 26 /11 और हाल ही में अमेरिकी सैनिक कारवाही जैसी परिस्थितियों में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कमर कस लेता है. भारतीय मीडिया का एक तबका भी पाकिस्तान-विरोधी उन्माद का शिकार रहा है जो पाकिस्तान हे नहीं चीन के साथ संबंधों को लेकर भी अनावश्यक राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करता रहा है. सच तो यह है की भारत के भीतर पाकिस्तान- विरोधियों और पाकिस्तान के भीतर भारत-विरोधियों की कभी भी कमी नहीं रही और दोनों देशो की विदेश नीति पर इनका प्रभाव भी कभी कम नहीं रहा. लेकिन आज की स्थिति में 'विरोध' ये परंपरागत समीकरण बिखर चुके हैं और इसी के अनुरूप विदेश नीति को बदलना होगा जिससे पाकिस्तान के भीतर के भारत-विरोधियो को पराजित किया जा सके. आखिर आज भारत उस पाकिस्तान से रूबरू नहीं है जो 1947 में अस्तित्व में आया था बल्कि यह एक ऐसा पाकिस्तान है जिसका बिखरना भारत के लिए एक बड़ा खतरा होगा . अमेरिकी कारवाही के एक दम बाद भारतीय सैनिक नेतृत्व ने कुछ ऐसे बयान दिए जिनसे पाकिस्तान के भारत- विरोधी उन्मादियों को ताकत मिली. लेकिन इसके एकदम बाद राजनैतिक नेतृत्व ने विवेक का परिचय दिया और स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा की भारत अमेरिका नहीं है और न ही भारत के तौर-तरीके अमेरिका जैसे हैं. उन्होंने पाकिस्तान के साथ मौजूदा राजनैतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर जोर दिया.


ऐतिहासिक रूप से एक अपमानित देश में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आयें हैं. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के अपमान ने दुसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में अपमानित जापान अलग ही रास्ता अपनाने को मजबूर था. अपमानित पाकिस्तान कौन सा रास्ता अपनाएगा -यह इस बात पे निर्भर करता है की पाकिस्तान के भीतर चल रही कशमकश में कौन सा पक्ष मजबूत होकर उभरता है. आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. पाकिस्तान में इस्माली उग्रवाद गहरी जड़े जमा चूका है जिसका इस्तमाल सैनिक प्रतिष्ठान ने भारत के खिलाफ और अफगानिस्तान पर प्रभुत्वा कायम करने के लिए लिया. लेकिन अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है.

ऐसी परोस्थितियाँ कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है.

इसलिए एकदम पड़ोस में भड़क रहे इस सर्द-गर्म और जटिल युद्ध के प्रति भारत को एक नयी नीति का सृजन करना होगा जिसमें अलगाव भी न हो और ऐसा जुडाव भे न हो की दीर्घकालीन हितों पर चोट पहुंचे और कुछ ऐसी समस्याएं भारत के दरवाजे पर आज टपकें जिन्हें दूर रखा जा सकता है. पुराने राजनीतिक और सामरिक समीकरण ध्वस्त हो चुकें हैं और नए उभर रहे हैं जिनका सामना करने के लिए नयी नीति और नए दृष्टिकोण की जरुरत है -जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है.

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