Wednesday 23 February 2011

समकालीन वैश्विक मीडिया: सूचना का अंत और मनोरंजन आगमन

सुभाष धूलिया

तानाशाहियों की तुलना में मुक्त समाजों में सेंसरशिप असीमित रूप से कही अधिक परिष्कृत और गहन होती है क्योंकि इस से असहमति को चुप कराया जा सकता है और प्रतिकूल तथ्यों को छिपाया जा सकता है- जोर्ज ऑरवेल

आज की दुनिया औपचारिक रूप से अधिक लोकतान्त्रिक है लेकिन फिर भी लोगों को लगता है की उनके समाज के बुनियादी फैसले अधिकाधिक उनके नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं- रॉबर्ट मैकचेस्नी

पिछले तीन दशकों में मानव विकास की दिशा और दशा मैं बुनियादी परिवर्तन आये हैं । समाज पर व्यापार के आधिपत्य की नवउदारवादी विचारधारा आज विश्व राजनीति के केंद्र में हैं । नवउदारवाद का आधार एक उपभोक्ता समाज और विश्व को एक बाज़ार में तब्दील कर देना है । एक ऐसे समाज का निर्माण है जिस पर व्यापार का प्रभुत्व हो इस तरह की व्यवस्था कायम करने मैं मीडिया की केंद्रीय भूमिका है । अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राद्गट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से परिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए।

अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रक्रिया शुरू हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊँचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया भी शुरू हुई। शीतयुद्धकालीन वैचारिक राजनीति के अवसान के उपरांत नवउदारवादी भूमंडलीकरण से एक नए व्यापारिक मूल्यों और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति का उदय हुआ। इन सबका जबरदस्त प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर भी पड़ा। जनसंचार माध्यम काफी हद तक इस प्रक्रिया का हिस्सा बन गये और राजनीतिक और व्यापारिक हितों के अधीन होते चले गए। व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया आज अपने चरम पर है। भले ही विभिन्न देशों और विभिन्न समाजों में इसका रूप-स्वरूप कितना ही भिन्न क्यों न हो।

शीतयुद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया। पश्चिम की पूंजीवादी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इसका कोई वास्तविक रूप से प्रभावशाली विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों से शैली की पश्चिमी उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और नवउदारवादी भूमंडलीकरण- यही आज की विश्व व्यवस्था के मुखय स्तंभ हैं। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। सांस्कृतिक समरूपीकरण प्रक्रिया को जन्म दे रहा है । राजनैतिक स्तर पर यह पश्चिमी उदार लोकतंत्र, आर्थिक स्तर पर मुक्त आर्थिक व्यवस्था और सांस्कृतिक स्तर पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया दिनोदिन तेज़ होती जा रही है. एक बहुरंगी और विविध दुनिया को समरूप बनकर एक वैश्विक सुपर मार्केट में तब्दील होती प्रतीतं होती है ।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह पहले से कहीं अधिक व्यापक, गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैच्च्िवक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। नयी विश्व व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नयी सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दच्चक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को में मैक्ब्राइड कमीच्चन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देश विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में संतुलन की मांग करे रहे थे लेकिंग नयी विश्व व्यवस्था में एकतरफI प्रवाह ही अधिक तेज़ हो गया . इसी दौरान सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार, सेटेलाइट और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुच्च लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासच्चील देच्च सूचना-समाचारों के लिए एकतरफा प्रवाह की च्चिकायत करते थे उसका आवेग इस नये दौर में अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रूप से संभव नहीं रह गया था।

शीत युद्ध के बाद उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों सामूहिक सौदेबाजी की क्षमता क्षीण हो गयी है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और विकासशील देशों के अन्य संगठन या तो अपना अर्थ खो बैठे या अप्रसांगिक हो गए। इसका मुख्य कारण यह था कि विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांच्च देच्चों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर नवउदारवादी भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था।

विकासशील देशों सरकारों के स्तर पर इस तरह के प्रभुत्व का कोई प्रतिरोध न होने के कारण एक सीमा तक यह प्रतिरोध धार्मिक कट्‌टरपंथ जैसे नकारात्मक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। नयी विश्व व्यवस्था राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश , संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है । मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनसे सही-गलत, सभ्य- असभ्य के पैमाने निर्धारित होते हैं। इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरू होती है।

नब्बे के दशक में दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ। इस दौरान निजीकरण और नयी प्रौद्योगिकी की मदद से उत्पादकता और कुशलता में तेज इजाफा हुआ। निजी क्षेत्र का उद्योग नयी प्रौद्योगिकी को आत्मसात करने में अधिक गतिच्चील साबित हुआ और जिसकी वजह से इसकी उत्पादकता और कुशलता में भारी वृद्धि हुई और संपति के सृजन की इसकी क्षमता नये आसमान छूने लगी। इसी दौरान सार्वजनिक क्षेत्र पर टिकी अर्थव्यवस्था जड ता का च्चिकार होती चली गयी और चंद अपवादों को छोड कर सार्वजनिक प्रतिद्गठान आर्थिक रूप से टिकाऊ साबित नहीं हो सके।

उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में आर्थिक समृद्धि का एक बड़ा उफान आया और एक नया वर्ग पैदा हुआ जिसके पास अच्छी खासी क्रय द्राक्ति थी और यह पारंपरिक मध्यमवर्ग की तुलना में कहीं बड ा उपभोक्ता था। आज जो उपभोक्ता क्रांति देखने को मिल रही है उसका झंडाबरदार यही वर्ग है। यह उपभोक्ता क्रांति अभी जारी है और एक नये दौर की मीडिया क्रांति इसी वर्ग पर टिकी है। इस नये बाजार के उदय के बाद अन्य उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ मीडिया उत्पादों की मांग में भारी वृद्धि हुई। मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का प्ररिदृश्य पैदा हुआ है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।

सूचना की इस क्रांति के उपरांत दुनिया में जितना संवाद आज हो रहा है वो बेमिसाल हैं लेकिन इस इस संवाद का आकार जितना बड़ा है इसकी विषयवस्तु उतनी हे सीमित होती जा रही है। लोग अधिकाधिक मनोरंजित होते जा रहे हैं और अधिकाधिक कम सूचित/जानकर होते जा रहे हैं । इसी दौरान लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनः परिभाषित हुए। विश्व भर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं की नयी पीढ का का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नये बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नयी तरह की बाजार होड पैदा हुई।

दरअसल नवउदारवादी भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक ''टोटल पैकेज'' है जिसमें राजनीति, आर्थिक और संस्कृतिक तीनों ही पक्ष शामिल हैं। मीडिया नयी जीवन शैली और नये मूल्यों का इस तरह सृजन करता है जिससे नये उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार इसी उपभोक्ता क्रांति के बल पर हो रहा है। इन रूझानों के चलते 1990 के दशक में मीडिया के व्यापारीकरण का नया दौर शुरू हुआ जिसकी गति और आकार अपने आप में बेमिसाल थी। इस दौर में मीडिया व्यापार की ओर अधिकाधिक झुकता चला गया और सार्वजनिक हित की पूर्ति करने की इसकी भूमिका ह्रास हुआ। मीडिया अब सार्वजनिक-व्यापारिक उद्यम से हटकर व्यापारिक-सार्वजनिक उद्यम बन गया जिसे व्यापारिक हित ही संचालित करतें हैं । आज मीडिया के व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया अपने चरम पर है।

सूचना क्रांति से एक ऐसे वैश्विक गाँव का उदय हुआ जो दुनिया के सम्पनों के एकीकरण से जन्मा है । सूचना समाचारों और इस तरह के मीडिया उत्पदों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बडा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था, यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये संगठनों के माध्यम से उस देश के ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देश की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वह प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तमाम राजनितिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दीवारें ढह रहीं हैं जो परंपरागत रूप से एक तरह के सुरक्षा कवच का काम करतीं थीं ।

मीडिया का निगमीकरण

समकालीन मीडिया के निगमीकरण , केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। मीडिया संघटन एक तो खुद व्यापारिक निगम बन गए हैं और दूसरी और पूरी तरह विज्ञापन उद्योग पर निर्भर हैं । एक ओर तो नई प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राद्गट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है, तो दूसरी ओर मुखयधारा मीडिया में केंद्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया का केंद्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले निगमों की संखया कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी - बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया के केंद्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचनातंत्र पर चंद विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया निगमों का प्रभुत्त्व है जिनमें से अधिकांच्च अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन बहुराष्ट्रीय निगमों के इस व्यापारिक अभियान में स्वायत पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रुझान को आज राद्गट्रीय और अंतर्राष्टीय स्तर पर स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।

पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया निगमों का प्रभुत्त्व है और इनमें से अनेक निगमों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देशों से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मर्डोक की न्यूज कॉर्पोरेच्चन का अमेरिका, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक अच्छे-खासे हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न निगम का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विच्च्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बडी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बडे हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी निगम इलेक्ट्रॉनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज नी वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेच्चन इंक, यूनिवर्सल (सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बडे बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले निगम ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय निगमों के बाद दूसरे स्तर के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सैक्टरों में से एक है और रोज नयी-नयी कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांच्च बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम संचार के क्षेत्र से जुडे कई क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचारपत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन , संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रौद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांच्च बडे मीडिया निगम दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं।

अनेक निगमों ने या तो किसी देच्च में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देश कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये निगम अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराद्गट्रीय निगमों की यह स्थानीयता दरअसल उपभोक्त मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं। मीडिया के इस तरह के केन्द्रीयकरण से के ऐसा बाज़ार पैदा हुआ है जिसमें विविधता ख़त्म हो रही है और हर मीडिया में एक ही तरह के समाचार (उत्पाद) छाए रहतें हैं। आज विषयवस्तु का बाज़ार मूल्य अहम् नहीं रह गया है बल्कि इसे बेचने वाला तंत्र अधिक भूमिका निभा रहा है। आज का मीडिया एक ओर तो वैश्विक व्यापार-वित्त के फैलाव के रास्तों का निर्माण कर रहा है और दूसरी और खुद भी एक व्यापार बन गया है ।

राजनीतिक, सामाजिक और संस्कृतिक जीवन का मनोरंजनीकरण

मीडिया उद्योग एक तरह के सांस्कृतिक और वैचारिक उद्योग हैं। इन उद्योगों पर नियंत्रण का अर्थ होता है किसी देश की राजनीति और संस्कृति पर नियंत्रण. दुनिया के अनेक देशों में अमेरिकी सांस्कृतिक आक्रमण को लेकर असंतोष पनप रहा है जिनमें केवल विकासशील देश ही नहीं बल्कि यूरोप के अनेक विकसित देश भी शामिल हैं. नव उदारवादी भूमंडलीकरण के झंडावरदार विश्व व्यापार संगठन में यह मांग भी उठाई गई थी की इन संस्कृति को व्यापार से अलग रखा जाए लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया और आज विचार और संस्कृति दोनों ही व्यापार के अधीन दिखाई पड़ते हैं.

व्यापरिकृत मीडिया मुनाफे से संचालित होता है. मुनाफे को अधिकतम स्तर पर पहुँचने ले लिए बाज़ार की होड़ पैदा हुयी । इसके कारण एक नरम (सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कडे-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श ह्रास हो रहा है। इस बाजार होड के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें। यह मीडिया तंत्र पर उन वैश्विक ताकतों का नियंत्रण है जो अपने व्यापारिक एजेंडा थोपने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और संस्कृतिक जीवन के हर पक्ष का मनोरंजनीकरण कर रहे हैं। आज विज्ञानं से लेकर खेल तक हर चीज मनोरंजन है

बाजार को हथियाने की होड़ में 'इन्फोटेनमेंट' नाम के नये मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विद्गायवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विच्चाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके। मनोरंजन से अधिक लोगों को आकृष्ट किया जा सकता है लेकिन अत्यधिक मनोरंजन से सूचना के तत्त्व का ह्रास होता है ओर इस प्रक्रिया में मीडिया लोगों को सूचना देने के बजे उन्हें लुभाकर विज्ञापनदाताओं के हवाले करता है ।अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेच्च किये जाते है कि वे लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वनीयता के स्तर पर वे कार्यक्रम खरे न उतरते हों।

नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उदय के उपरांत उपभोक्ता की राजनीति और उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये-नये उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नयी-नयी मीडिया तकनीकों का इस्तेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 'सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल' पत्रकारिता का उदय हुआ। एक नये मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नये-नये उपभोक्ता उत्पादों की बाढ -सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार और इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है। इस स्थिति में बााजार और समाचार के संबंध भी प्रभावित होंगे।

इसके साथ ही 'पॉलिटिकॉटेनमेंट' की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विद्गायों का चयन, इनकी व्याखया और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बडे राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदे पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृद्गिट से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिक नज र आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीति मदभेदों के स्थान पर तू तू-मैं मैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सतहीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के हृास का आकलन करना जरूरी हो जाता है।

व्यापारीकरण के उपरांत राजनीतिक जीवन और राजनीतिक मुद्दों के सतहीकरण और मनोरंजनीकरण का रुझान प्रबल हुआ है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलीब्रिटीज का राजनीति में प्रवेच्च हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्च्च के संदर्भ में एक नये टेलीविजन का उदय हुआ है। इससे वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर सतही मुद्दों पर जोर दिया जाता है और कई अवसरों पर तो गैर-मुद्दे भी मुद्दे बना दिए जाते हैं। गैर-मुद्दों को मुद्दा बना देने का रुझान का कुछ विचित्र आयाम ग्रहण कर रहा है।

व्यापारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के समानांतर एक नई राजनीतिक संस्कृति का भी उदय हुआ है जिसमें पत्रकारिता और पत्रकार अपनी स्वायतता काफी हद तक खो चुकें हैं और व्यापारिक हितों के अधीन होने को वाध्य हैं । इस कारण उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता जा रहा है और किसी तरह के भी पत्रकारीय प्रतिरोध का स्पेस सीमित हो गया है । मीडिया के जबरदस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुखयधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी।

शीत युद्ध के दौरान विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष समाचारों के केंद्र में होते थे और लोगों की इनमे रूचि भी होती थे क्योंकि इनका परिणाम उनके जीवन और भविष्य को प्रभावित करता था । विकास की गति बढ ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे और क्योंकि व्यापारित मीडिया का सरोकार इसी तबके से था इसलिए इसकी रुचियों तक ही मीडिया सीमित होता चला गया और वे समाचार हासिये पर जाते चले गए जिनका समाज के व्यापक तबकों से सरोकार था। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबके के विस्तार के कारण मीडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरू हुआ। यह नया तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें 'ज्वलंत' समाचार 'ज्वलंत' नहीं रह गये और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रक्रिया द्राुरू हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रक्रिया समाचारों से शुरू हुई और फिर स्वयं समाचारों के चयन को ही प्रभावित करने लगी।

इस कारण भी समाचारों का मूल स्वभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया तब द्राुरू हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रक्रिया तभी द्राुरू कर दी गयी जब समाज का एक छोटा-सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था। विकासच्चील देशों में विकासशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकासच्चील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवच्च्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जो रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक 'आम' नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा- कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है, तो अन्यत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अन्धविश्वाश की जडों को गहरा कर सकता है।

लोकतांत्रिक विमर्श बनाम नियंत्रण

राजनीति एक तरह का 'शोबिज़नस' बन गयी है और मीडिया मैं लोकतांत्रिक विमर्श की लोक परिधि की परिकल्पना की गयी थी वह हासिये पर चली गयी है। आज काफी हद तक मीडिया जीवन के केंद्र में है। आज मानव जीवन का लगभग हर पक्ष मीडिया द्वारा संचालित हो रहा है । मीडिया इतना शक्तिशाली और प्रभावशाली हो गया है कि हर तरह का विमर्श मीडिया तक ही सीमित होता प्रतीत होता है । एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र का स्थान मीडियातंत्र ले चुका है।
एक ओर तो हर तरह का विमर्श अधिकाधिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है, तो दूसरी ओर, मीडिया का व्यापारीकरण हो रहा है जिसकी वजह से व्यापक मीडिया विमर्श की बजाय मुनाफा कमाने का उद्यम बन चुका है।

मौजूदा दौर में संवाद और विमर्च्च के अनेक माध्यम लगभग विलुप्त और निद्गप्रभावी से हो गए हैं। लोकपरिधि की परिकल्पना का सीधा संबंध जनमत और दूसरे माध्यम से लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी को लेकर था लेकिन आज एक ऐसा परिदृच्च्य पैदा हो रहा है कि किसी विद्गाय के पक्ष में भारी 'जनमत' होने के बावजूद भी पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस मुद्दे और इस जनमत को जनसंचार माध्यमों में अभिव्यक्ति मिले। सहमति के निर्माण की परिकल्पना भी कोई नयी नहीं रही है। बहुत पहले भी कहा गया था कि लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों के जरिये लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से सहमति न होने पर भी एक ऐसे विमर्च्च का सृजन किया जा सकता है और इस विमर्च्च को ऐसे रास्ते पर ले जाया जा सकता है कि आखिर में किसी भी विद्गाय पर एक सहमति का निर्माण किया जा सके और इस तरह की निर्मित सहमति ही आधुनिक लोकतंत्र का आधार बन गई है। इसका आच्चय यह है कि यह सहमति स्वाभाविक रूप से जनता के बीच से उभर कर नहीं आई बल्कि ऊपर से एक विशिष्ट,
अभिजात शासक वर्ग ने इसे तैयार किया या यह भी कह सकते हैं कि इसे थोपा।

सहमति के निर्माण की इस परिकल्पना में भी हाल ही में भारी परिवर्तन आए हैं। अब आधुनिक जनसंचार माध्यम और इनके माध्यम से प्रचारित की गयी जानकारियां इस कदर विशेषकृत हो चुकी है कि इन्हें किसी खास मकसद के लिए खास तरह से ढाल कर लोगों को एक खास रास्ता चुनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

मीडिया परम्परागत रूप से निच्च्चय ही लोकतांत्रिक विमर्च्च के माध्यम रहे हैं; इन्होंने उनके लोकहित और सामाजिक मुद्दों को उठाकर बड़े परिवर्तनों का मार्ग प्रच्चस्त किया; सच्चक्तीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई सूचना संसाधन के लाभकारी उपयोग के मार्ग प्रच्चस्त हुए; सूचना और ज्ञान के संसार का भारी विस्तार हुआ । सूचना के स्रोतों में भारी वृद्धि हुई और लोगों के सामने हमने अनेक विकल्प प्रस्तुत किए। लेकिन सत्तर-अस्सी के दच्चक में मीडिया शक्ति और प्रभाव में भारी इजाफा हुआ और इसके साथ ही इनका स्वामित्व अधिकाधिक निगमीकृत होता चला गया। साथ ही वैचारिक संघर्द्गा की राजनीति के कमजोर पड ने से भी मीडिया पर जन-दबाव में कमी आई और व्यापारीकरण के रास्ते पर उन्मुख होने का इनका रास्ता आसान हो गया। इस दौरान मीडिया प्रबंधक की कला में निरंतर विकास हुआ और यह परिष्कृत होती चली गई।इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण इराक पर आक्रमण करने से पहले और आक्रमण करने के बाद भी अमेरिकी प्रशासन का मीडिया प्रबंधन और सूचना नियंत्रण रहा। स्वयं अमेरिका के मीडिया विच्चेद्गाज्ञों ने यह साबित कर दिया है कि इराक पर आक्रमण को लेकर अमेरिकी मीडिया के इस दौरे में सरकार द्वारा दी गई सूचनाओं पर ही निर्भर रहे और इस कारण तीन वर्षों तक इराक युद्ध को लेकर अमेरिकी नागरिकों को अंधेरे में रखा गया और युद्ध के पक्ष में जनमत निर्मित किया गया। इराक और अफगान युद्ध के मीडिया कवरेजे पर निगाह डालें तो स्पष्ट हो जाता है की किस तरह युद्ध को भी मनोरंजन के रूप में पेश किया गया और युद्ध की बर्बरतों
पर पर्दा डाला गया ।अफगानिस्तान एक ऐसा देश है जो 1989 से युद्ध की आग में जल रहा है लेकिन इस देश के लोगों की हालत पर मीडिया में कितना देखने, सुनाने या पढने को मिलता है केवल इतना ही बताया जाता है किस किस हमले में कितने आतंकवादी मारे गए।

आज इस तरह प्रबंधन और जनसंपर्क की तकनीकों का अधिकाधिक इस्तेमाल किया जा रहा है। सूचना विशेषज्ञों का वर्ग जनसंचार माध्यमों से ऐसी छवियों का निर्माण करता है जिससे जनमत को किसी खास दिच्चा में मोड़ा जा सकता है। इस तरह के सूचना प्रबंधन और जनसंपर्क तकनीकों के उदय के उपरांत राजनीति और राजनीतिक जीवन का इस तरह का मीडियाकरण हो गया है और इससे जनमत को प्रभावित करने में मीडिया की अहम भूमिका हो गई है। इस तरह के मीडियाकरण के कारण भी जनसंचार माध्यमों में जनमत के प्रतिबिंबित होने से कहीं अधिक भूमिका जनमत को प्रभावित करने की हो गई है।

भले ही यह न कहा जा सके कि मीडिया की यह भूमिका पूरी तरह विकृत हो चुकी है लेकिन इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि लोकतंत्र का आधार एक सूचित और जानकार नागरिक ही हो सकता है। लेकिन व्यापारीकरण की प्रक्रिया और नई उपभोक्ता संस्कृति के उदय के बाद एक नागरिक का उपभोक्ता वाला पक्ष ही हावी होता चला गया है। एक नागरिक सही तरह से सूचित और जानकारी होता है वहीं वह कह सकते है कि एक उपभोक्ता सही ढ़ग से सूचित नहीं होता और अनेक अवसरों पर इसकी सोच को कुछ खास मकसद की पूर्ति के लिए ढाला जा सकता है। मीडिया के नागरिक से विमुख होकर उपभोक्ता पर केंद्रित होने से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में अनेक ऐसे रुझान पैदा हो रहे हैं जिन्हें वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।

मीडिया की इस बदली भूमिका से सत्तासीन कुलीन वर्ग और नागरिकों के व्यापार समुदाय के बीच लोकतांत्रिक विमर्च्च का स्वरूप बदल ही नहीं गया है बल्कि इसमें निहित विमर्श के तत्वों में जबर्दस्त ह्नास हुआ है और नागरिक समुदाय के मत को तोड़ने-मरोड ने और विकृत करने के लिए सूचना प्रबंधन और जनसंपर्क की परिद्गकृत तकनीकें अस्तित्व में आई हैं। इससे नागरिक समुदाय की तुलना में सत्तासीन वर्ग की क्षमता बढ ी। मीडिया ने नियंत्रण और शासन के नए हथियार पैदा किए। इस पूरी प्रक्रिया में राजनीतिज्ञो, सूचना विच्चेद्गाज्ञों और पत्रकारों की धुरी के पैदा होने से जनमत को किसी खास पक्ष में मोड ने की क्षमता में जबरदस्त वृद्धि हुई।

समाचारीय घटनाओं के बदलते मानदंड

समाचारों के विद्गाय चयन, समाचार या घटनाओं को परखने की पंरपरागत सोच और दृद्गिटकोण के पैमाने और मानदंड बेमानी हो गये। इसके परिणामस्वरूप आज का उपभोक्ता-नागरिक इस बात को नहीं समझ पाता है कि देश -दुनिया की महत्त्वपूर्ण घटनाएं कौन-सी हैं? परंपरागत रूप से मीडिया एक ऐसा बौद्धिक माध्यम होता था जो लोगों को यह भी बताता था कि कौन सी घटनाएं उनके जीवन से सरोकार रखती हैं और उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। इस तरह मीडिया एक तरह का मध्यस्थ भी होता है जो किसी घटना को एक संदर्भ में पेच्च करता है, इसे अर्थ देता है और एक परिप्रेक्ष्य में इसे प्रस्तुत करता है। आज का मीडिया मध्यस्थ की इस भूमिका को बहुत प्रभावच्चाली ढंग से निभाता प्रतीत नहीं होता। इस दृद्गिट से समाचारों को नापने-परखने के कुछ सर्वमान्य मानक होते थे। आज ये सर्वमान्य मानक काफी हद तक विलुप्त से हो गये हैं और एक उपभोक्ता-नागरिक समाचारों के समुद्र में गोते खाकर कभी प्रफुल्लित होता है, कभी निराच्च होता है और कभी इतना भ्रमित होता है कि समझ ही नहीं पाता कि आखिर हो क्या रहा है? रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, इंटरनेट, मोबाइल सभी का उपयोग करने वाले उपभोक्ताओं की संखया में निरंतर और तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन उनके माध्यम से प्रसारित होने वाले सूचना-संदेशों अंतरवस्तु कुल मिलकर सतही है और इसका मूल चरित्र "चैट" तक तक ही सिमित होता प्रतीत होता है । आज में मीडिया के हर विमर्श और उत्पाद में "चैट" संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है ।

मीडिया से ही लोगों को किसी विषय के बारे में अधिकांश जानकारियां मिलती हैं जिसमें किसी विषय के बारे में सूचना और विचार और इससे सृजित होने वाला ज्ञान द्राामिल है। आधुनिक समाज के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि छवि का संचार है। किसी भी ऐसे विषय के बारे में हम इसके बारे में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही इसकी एक छवि विकसित करते हैं और इस विषय पर यही छवि हमारे लिए यथार्थ होती है। वास्तविक रूप से दुनिया का यह एक छोटा-सा ही हिस्सा होता है जो स्वयं हमारे अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के दायरे में होता है और इसके बारे में कोई जानकारी के लिए हम किसी बाहरी सूचना माध्यम पर निर्भर न होकर खुद ही इसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं। लेकिन हमारे प्रत्यक्ष दायरे की इस छोटी सी दुनिया के बाहर का जो व्यापक संसार है उसके बारे में हमें जो बताया जाता है उसी के अनुसार हम इसके यथार्थ का सृजन करते हैं।

किसी भी विषय पर सूचनाएं प्राप्त करने के अनेक साधन हो सकते हैं। संचार के अनेक तरीकें से अनेक विषय के बारे में हमें सूचनाएं मिलती हैं या हम सूचनाएं इकट्‌ठा करते हैं। वर्त्तमान में लोग किसी भी विषय पर जानकारियां हासिल करने के लिए लोग अधिकाधिक मीडिया पर निर्भर होते जा रहे हैं। दुनिया में सूचना क्रांति के दौरान सूचनाओं का विशाल महासागर पैदा हो गया है लेकिन इसके साथ ही हमारे पड़ोस में होने वाली घटनाओं के बारे में भी जानकारी हमें मीडिया से ही मिलती है और इसी के आधार पर हम कोई मत और दृद्गिटकोण विकसित करते हैं। इस संदर्भ में यह भी समझना जरूरी हो जाता है कि मीडिया किन घटनाओं, विचारों और समस्याओं को समाचार योग्य समझते हैं और फिर इनके किस पक्ष और पहलू को कितना महत्त्वपूर्ण आंकते हैं। घटना के किसी एक खास पक्ष को उजागर कर घटना के बारे में पहला प्रभाव पैदा कर दिया जाता है।

इस दृद्गिट से मीडिया एक मध्यस्थ की भूमिका अदा करता हैं और हमें बताता हैं कि देच्च और दुनिया की महत्त्वपूर्ण घटनाएं कौन-सी हैं और फिर, इन घटनाओं के बारे में जानकारियों का चयन कर इन्हें कुछ अर्थ प्रदान करते हैं, एक परिप्रेक्ष्य में इनका प्रस्तुतीकरण करते हैं। चयन और प्रस्तुतीकरण की इस प्रक्रिया से ही मीडिया हमें बताते हैं कि कौन से विषय महत्त्वपूर्ण हैं और इन विषय बारे में हमें किस तरह सोचना चाहिए और इस तरह इन विद्गायों पर एक जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मीडिया हमें भले ही यह न बताते हों कि हम क्या सोचें लेकिन काफी हद तक यह बताने में सफल होते हैं कि वे विषय कौन-से हैं जिनके बारे में हमें सोचना चाहिए। इसके समानातंर ढेर सारे ऐसे विषय और घटनाएं होती हैं जिन्हें मीडिया में कोई उल्लेख नहीं होता।

सूचना विस्फोट के उपरांत उभरे मीडिया से इस जन के विचार की अपेक्षाएं पूरी होने के बजाय इससे यह कुछ बेडोल और बेमेल हो गई है। पश्चिमी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने तो यहां तक कह दिया है कि विकसित देशों में जिनके बारे में यह पाया गया है कि वे सूचना समाज में परिवर्तित हो चुके हैं, वहां लोग सूचित कम हैं और गलत सूचनाओं के शिकार अधिक हैं। अमेरिका में एक सर्वेक्षण में तो यह निद्गकर्द्गा निकला गया था कि जो लोग टेलीविज न अधिक देखते हैं, इराक युद्ध के बारे में उनकी समझ उन लोगों से कम हैं जो टेलीविजन अधिक नहीं देखते हैं।

व्यापारीकृत मीडिया के पब्लिक एजेंडा से हटने से इसके द्वारा दी जाने वाली जानकारियों की साख और विच्च्वसनीयता को लेकर भी अनेक सवाल उठ रहे हैं। साख और विश्वनीयता के इस संकट को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तात्कालिक रूप से यह अल्पावधि के लिए जनमत को प्रभावित करने की व्यापारीकृत मीडिया की जो क्षमता दिखाई पडती है उसका दीर्घकाल में टिकाऊ रहना संभव नहीं है। किसी खास विषय पर मीडिया जनमत को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं लेकिन साख और विच्च्वसनीयता पर उमड रहे संकट के बादलों को देखते हुए दीर्घकाल में मीडिया की भूमिका पर पर नए सवाल पैदा होतें हैं । निगमीकृत मुख्यधारा मीडिया के इस साख के संकट से वैकल्पिक मीडिया के लिए स्पेस पैदा हो सकता है ।

वैकल्पिक मीडिया

मीडिया उत्पादों के वैच्च्िवक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नये तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है। समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। दूरसंचार, सेटेलाइट और कंप्यूटर से आज इंटरनेट के रूप में एक ऐसा महासागर पैदा हो गया है जहां मीडिया की हर नदी, हर छोटी-मोटी धाराएं आकर मिलती हैं। इंटरनेट के माध्यम से आज किसी भी क्षण दुनिया के किसी भी कोने में संपर्क साधा जा सकता है। इंटरनेट पर सभी समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं। आज हर बड़े से बडे और छोटे से छोटे संगठनों की अपनी वेबसाइट हैं जिन पर इनके बारे में अनेक तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती हैं।

इंटरनेट पर नागरिक पत्रकार ने भी अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज की है। इंटरनेट पर ब्लॉगों के माध्यम से अनेक तरह की आलोचनात्मक बहसें होती हैं, उन तमाम तरह के विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है जिनकी मुखयधारा का कॉरपोरेट मीडिया अनदेखी ही नहीं उपेक्षा भी करता है क्योंकि इनमें कॉरपोरेट व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करने की भी क्षमता होती है। भले ही ब्लॉग एक सीमित तबके तक ही सीमित हो लेकिन फिर भी ये समाज का एक प्रभावच्चाली तबका है जो किसी भी समाज और राद्गट्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ब्लॉगिंग ने अत्यधिक व्यापारीकृत मीडिया बाजार में अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज करायी है। विकसित देच्चों में लगभग एक-चौथाई आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती है इसलिए ब्लॉग अभिव्यक्ति के एक प्रभावच्चाली माध्यम बन चुके हैं। विकासच्चील देच्चों में भी ब्लॉग लोकतांत्रिक विमर्च्च के मानचित्र पर अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ब्लॉग निच्च्चय ही आज के सूचना-शोरगुल वाले मीडिया बाजार की मंडी में एक वैकल्पिक स्वर को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस नये वैकल्पिक मीडिया में कुछ निहित कमजोरियां भी हैं।

मीडिया बाजार में उपस्थित शक्तिशाली तबके ब्लॉग की दुनिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। बड़े कारपोरेट संगठन और सरकारी एजेंसियां अनेक ब्लॉग खोलकर या पहले से ही सक्रिय ब्लॉगों में प्रवेच्च कर इस लोकतांत्रिक विमर्च्च को प्रभावित करने की अपार क्षमता रखते हैं। ऐसे में शक्तिशाली संगठनों का ब्लॉग संसार में दखल और उसके परिणामों का आकलन करना भी जरूरी हो जाता है। मीडिया के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को समझने के लिए द्राक्तिच्चाली संगठनों की इस क्षमता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ब्लॉग के गुरिल्ला ने व्यापारीकृत मीडिया के बाजार में प्रवेच्च कर हलचल तो पैदा कर दी है लेकिन अभी ये देखा जाना बाकी है कि यह इस मंडी में अपने लिए कितने स्थान का सृजन कर पाता है और किस हद तक कॉरपोरेट और सरकारी संगठनों के इसे विस्थापित करने के प्रयासों को झेल पाता है।

इस दृद्गिट से सबसे अधिक आच्चावाद इस बात से पनपता है कि मुखयधारा कॉरपोरेट मीडिया के समाचारों और मनोरंजन की अवधारणाओं में जो रुझान पैदा हो रहे हैं उससे इसकी साख और विच्च्वसनीयता में जबरदस्त गिरावट आ रही है। इस रुझान के कारण अब लोग इस तरह के समाचारों से ऊबने लगे हैं, निराच्च होने लगे हैं। मुखयधारा कॉरपोरेट मीडिया की साख में इस गंभीर संकट से ब्लॉग संसार के लिए अपने स्थान से विस्तार की नयी संभावनाएं पैदा हो गयी हैं।

निष्कर्ष

प्रोद्योगिकीय क्रांति के उपरांत एक ऐसे सूचना समाज की कल्पना की गयी थी जिसमें सूचना एक एक ऐसा बुनियादी संसाधन होगा जो मानव सभ्यता के सकारात्मक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करेगा। दुनिया भर के लोगों का सूचना संसाधन के बल पर सशक्तिकरण होगा और वे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में अधिक सक्रिय भागीदार बन सकेंगे। निश्चय ही एक स्तर पर इस क्रांति ने विमर्श के नए माध्यम सृजित किये हैं और आर्थिक पटल पर उत्पादकता और कार्य कुशलता बढ़ने में अहम् भूमिका अदा की है । लेकिन वैश्विक स्थर पर इस क्रांति ने नियंत्रण के अत्यंत परिष्कृत और प्रभावशाली हथियार भी सृजित किये हैं जिनके बल पर प्रोद्योगिकी, वित्त और सूचना का एक ऐसा गठजोड़ जिसने इक ऐसे एक नए सत्तातंत्र को जन्म दिया है जिसकी ताकत बेमिसाल है और जिसका नियंत्रण चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। यह सूचना सत्तातंत्र आज दुनिया में नव उदारवादी भूमंडलीकरण का झंडावरदार है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों और इस सूचना सत्तातंत्र का आज दुनिया पर प्रभुत्व कायम हो गया है और नए वैश्विक बाज़ार पर इनका नियंत्रण इतना मज़बूत है की अगर कोई देश इनके अनुकूल नीतियों पर नहीं चलता तो यह सत्तातंत्र उसकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को तहस नहस करने की क्षमता रखता है। पिछले कुछ वर्षों के वित्तीय संकटों से साफ़ ज़ाहिर है की इस सत्तातंत्र की ताकत कितनी बेमिसाल है।

नवउदारवादी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने दुनिया के अनेक देशों में सम्पति के सृजन के नए मार्ग प्रशस्त किये और पिछले बीस वर्षों में अनेक देशों में एक ऐसे मध्यम वर्ग का उदय और विस्तार हुआ और जिसकी क्रयशक्ति इतनी तेज़ी से बढ़ी कि इसने एक बहुत बड़े बाज़ार को जन्म दिया, एक नए उपभोक्ता को पैदा किया, नए उपभोक्ता मूल्य सृजित किये जिसने नव उदारवादी विचारधारा को एक बेहद उपजाऊ ज़मीन मुहैया की। आज का वैश्विक बाज़ार दुनिया भर के इस अतिरिक्त क्रयशक्ति वाले मध्यम वर्गीय उपभोक्ता पर टिका है।

इतिहास के मौजूदा दौर में मानव जीवन पर सूचना सत्ता तंत्र का नियंत्रण बेमिसाल है और कभी कभी लगता है इसे भेद पाना क्या संभव हो पायेगा ? लेकिन दुनिया का इतिहास और ख़ास तौर से मज़बूत सोवियत समाजवाद का अनुभव यही बताता है की नियंत्रण जितना अधिक मज़बूत होता है इसके ढहने का आवेक भी उतना ही तेज होगा। नयी सूचना क्रांति में अनेक ऐसे माध्यम सृजित किये हैं जो असहमति और असंतोष की अभिव्यक्ति के मंच के रूप में विकसित हो रहे हैं। भले ही आज ब्लॉग की दुनिया की ताकत सूचना सत्तातंत्र के सामने बौनी नज़र आती है लेकिन मुक्त अर्थ व्यवस्था पर समय-समय पर आने वाल आर्थिक संकट इस ओर भी इशारा करते हैं कि बाज़ार की ताकत उतनी नहीं हैं जितना नवउदारवाद इसका ढोल पीटता है। हाल ही के आर्थिक संकट इस और इशारा करतें हैं की बाज़ार और प्रोद्योगिकी की ताकत बेतहाशा होते हुए भी किन्ही ख़ास परिस्थितियों में खोखली साबित हो सकती है। 2009 के आर्थिक संकट के दौरान दुनिया की सबसे बड़ी वित्त कंपनी लेहमान ब्रदर्स के दीवालिया होने पर यह कहा गया था कि जिस तरह बर्लिन की दीवार का ढहना सोवियत समाजवाद का पतन का प्रतीक था, उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दीवालिया होना पूँजीवाद के पतन का प्रतीक है। इस पृष्टभूमि में, बहुराष्ट्रीय सूचना सत्तातंत्र और इसकी प्रभुत्वकारी नवउदारवादी विचारधारा और छोटे से ब्लॉगतंत्र के असंतोष और असहमति के स्वरों बीच के भावी सत्ता समीकरण का मूल्याकन करना भी आवश्यक हो जाता है।

अपने आप से डरा एक साम्राज्य

सुभाष धूलिया


शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद के दशक में विजय के उफान में सरोवर अमेरिका ने एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना बुना जिसमें अमेरिका के प्रभुत्व के लिए कभी कोई चुनौती न उभर पाए । इस दौरान अनके बहसें चलीं । एक तर्क था की शीत युद्ध में पश्चिम की विजय का अर्थ हैं कि पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थ व्यवस्था का मानव सभ्यता के विकास का अंतिम पड़ाव है इस इसका अब कोई विकल्प शेष नहीं रहा गया है । एक नयी अमेरिकी सदी का सपना बुना गया और ये तर्क दिया गया की अब अमेरिका को अपनी बेमिसाल सैनिक ताकत का इस्तेमाल दुनिया के "सभ्य और लोकत्रांत्रिक" बनाने के लिए करना चाहिए । 9 /11 हमलों के उपरांत अमेरिका जे अपना प्रभुत्व पुख्ता करने के लिए पहले अफगानिस्तान और फिर इराक के खिलाफ प्रत्यक्ष सैनिक अभियान छेड़े सुरक्षा परिषद् को दरकिनार किया और तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने ऐलान किया की अमेरिका कहीं भी किसी खतरे के संभावना पैदा होने पर भी इसे सैनिक ताकत से कुचल देगा । 9 /11 के बाद पूरी दुनिया जो अमेरिका के साथ खडी थी, बुश के इस एलान से सहम सी गयी ।


लेकिन दुनिया में लोकत्रंत्र के निर्यात का यह प्रोजेक्ट और "लोकत्रांत्रिक साम्राज्य" कायम करने का अभियान अपने शुरूआती दौर में ही चरमरा गया । पहले अफगानिस्तान और फिर इराक में लोकत्रंत्र तो दूर न्यूनतम स्थायित्व कायम करना भी संभव नहीं दीखता और अमरीकी सेना को हटाना ही कठिन हो गया है और पूरा प्रोजक्ट एक साम्राजवादी कब्जे जैसा ही अधिक दिखता है । भले हे सैनिकों के कटौती के बातें के जा रहीं हैं पर यह निश्चित जान पड़ता है के इन दोनों देशों पर अमेरिका नियंत्रण नहीं छोड़ेगा और लम्बे समय तक अमेरिकी सैनिक यहाँ बने रहेंगे ।

शीत युद्ध के बाद के अमेरिका और आज के अमेरिका में भारी अंतर दिखाई पड़ता है । चंद दिनों पहले राष्ट्रपति ओबामा के "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण का मूल्याकन अगर 9 /11 बाद के तमाम अभिभाषणओं के संदर्भ में किया जाये तो ये अंतर स्पष्ट हो जाता है । 2002 में बुश युद्ध की दहाड़ लगा रहे थे वहीँ आज ओबामा कह रहे हैं की अमेरिका "गूगल और फेसबुक का राष्ट्र " है । पिछले वर्ष अपने "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण में ओबामा ने कहा था की "दुनिया में अमेरिका का दूसरा स्थान हो- ये हमें स्वीकार्य नहीं है " और आज जब वे ये कहते हैं के अमेरिका को चीन, यूरोप और अन्य आर्थिक प्रतिद्वंदीयों से आगे बनाये रखने के लिए अनुसन्धान , प्रोद्योगिकी और शिक्षा पर ध्यान देना होगा । अमेरिका 2002 के 'हार्ड' से 2011 आते आते तक इतना 'सोफ्ट' क्यों और कैसे हो गया ? ओबामा 'परिवर्तन' और 'आशा' के नारों पर चुनाव जीते लेकिन आज अमेरिका में हुए अनेक जनमत संग्रहों से पता चलता हैं की भविष्य को लेकर अमेरिकीयों का विश्वास डगमगा रहा है ।

आम अमेरिकी और भी अधिक निराश है । आशा और परिवर्तन के ओबामा के नारे 2009 की मंदी और इसके बाद से ही उठ रहे आर्थिक संकटों के दलदल में समां गए हैं । अमेरिकी सत्ता और समाज के विभिन्न तबकों के बीच के अंतर्विरोध तेज़ हो रहे हैं । अमेरिका के बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्ठान, निर्वाचित सरकार और आम अमेरिकी के हितों में हमेशा से ही टकराव रहा है लेकिन आज यह टकराव एक ऐसे मुकाम पर जाता नज़र आता है जहाँ से परंपरागत सत्ता समीकरण को बदले बिना तालमेल बिठाये मुश्किल दिखाई पड़ता है । अमेरिकी समाज और व्यवस्था के मौजूदा संकट से उभरने के लिए अमेरिकी सरकार को बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्टान और आम अमेरिकी के हितों के बीच तालमेल बिठाये रखना कठिन होता जा रहा है ।

ओबामा का अभिभाषण अमेरिकी व्यवस्था और समाज के इन अंतर्विरोधों को ही अधिक अभिव्यक्त करतें हैं। दुनिया भर में फैला अमेरिकी साम्राज्य आज एक बार फिर अनुसन्धान , प्रौद्योगिकी और शिक्षा के अपनी ताकत के पुराना धरातल पर लौट रही है। इसी धरातल से अमेरिकी ताकत और अमेरिकी साम्राज्य का उदय हुआ था। आज का अमेरिका क्यों दुनिया के हर कोनें के अपने सैनिक अड्डों, सागर- महासागर में तैनात अपने जंगी बेड़ों और विनाशकारी नाभिकीय हथियारों से लैश अपनी मिशाइलओं की ताकत का अहंकार त्याग कर अपने आप को गूगल और फेसबुक की धरती बता कर अपनी ताकत का एहसास करा रहा है ।


निश्चय ही आज भी अमेरिका के ताकत बेमिसाल है । कोई भी अन्य ताकत अपने बूते के बजाय अमेरिकी ताकत मैं ह्रास के कारण ही इसके समकक्ष खड़ी हो सकती है । ऐसे में अमेरिका की वर्चस्व को चुनौती बाहर से नहीं अपने अन्दर से ही है । इतनी विशाल आर्थिक ताकत के बावजूद आम अमेरिकी के कष्ट बढ़ते हे जा रहे हैं भले ही आज दुनिया कितनी हे क्यों न बदल रही हो पर अमेरिकी ताकत को बाहर से कम और भीतर से अधिक खतरा नज़र आता है । अमेरिकी प्रशासन आम अमेरिकी के समस्याओं को संबोधित करने में विफल हो रहा है अमेरिका और अमेरिके व्यवस्था दोनों हे आज एक नहीं अनेक संकटों से घिरें हैं ये संकट सतही नहीं बुनियादी हैं और इन पर पार पाने के लिए बुनियाद पर चोट करनी होगी और ये साम्राज्य इतना विशाल है और इसका सत्ता समीकरण इतने जटिल हैं कि ऐसा करना ओबामा या किसी भी अन्य राष्ट्रपति के लिए आसन नहीं है ।


मौजूदा आर्थिक संकट कहीं से भी ठहरने का नाम नहीं ले रहा है। अमेरिकी आर्थिक ताकत दुनियां में एक मुक्त वैश्विक बाज़ार पर टिकी है लेकिन दुनिया भर में और ख़ास तौर से यूरोप में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय हो रहा है और अनेक देश भूमंडलीकरण के मौजूदा प्रारूप से हटकर संरक्षणवाद का रास्ता बना रहे हैं जिससे मुक्त वैश्विक व्यवस्था पर खतरे के बदल मंडरा रहें हैं और इस तरह की स्थिति अमेरिका के लिए सबसे अधिक कठिन होगी । आज दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है और जाहिर है हर बदलाव के साथ तालमेल बिठाने उसे ही सबसे अधिक कशमकश का सामना करना होगा जिसके पास अपार शक्ति केन्द्रित है । नयी दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के इसी एतिहासिक द्वन्द में ही आज का अमेरिका फंसा है ।

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