सुभाष धूलिया
इस वसंत में लगभग हर अरब देश में भड़के जनविद्रोह ने अनेक परंपरागत राजनैतिक समीकरणों को ध्वस्त कर दिया. ट्यूनीशिया और मिस्र के सर्वशक्तिमान दिखने वाले तानाशाहों को सत्ता छोडनी पड़ी. यमन , बहरीन, सीरिया, मोरक्को, जोर्डन, इराक और लेबनान भले ही विरोध प्रदर्शन इस तरह की सफलता हासिल न कर पाए हो लेकिन यह स्पष्ट हो गया है कि इन देशो की सत्ताएं राजनैतिक रूप से कितनी खोखली और कमज़ोर हैं जिनका अस्तित्व सिर्फ सैनिक ताकत पर टिका है. लीबिया में सरकार ने जन विद्रोह को कुचलने के लिए जनसहार का रास्ता अपनाया और आज वह पश्चिमी देशों के हवाई हमलों से जूझ रहा है. इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है की सैनिक ताकत के बल पर किस हद्द तक नागरिक और राजनैतिक समाज को दबाकर रखा है. मौजूदा जन विद्रोहं इसी दमित समाज का उफान है जिसका नेतृत्व एक शिक्षित और नयी संचार प्रौद्योगिकी से लैस उस युवा के हाथ में है जिसे किसी भी स्थापित राजनैतिक विचारधारा या संगठन से संबद्ध नहीं किया जा सकता .
यह भ्रष्ट तानाशाहों के खिलाफ युवा पीड़ी का विद्रोह है . इस विद्रोह में न तो धर्म था और न ही इजराइल और अमेरिका के विरोध के स्वर हैं जो हमेशा ही अरब प्रतिरोध- विरोध के केंद्र में रहे हैं. इस विद्रोह के पीछे कोई संगठित नेतृत्व नहीं था जो किसी वैकल्पिक व्यवस्था की रचना कर पाता. इसलिए इस प्रारंभिक चरण में यह विद्रोह उस मकसद को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाया जिसकी इसके फूटने के वक्त आशा की गयी थी. अरब जगत की किसी भी राजनीतिक धारा और किसी खास विचारधारा से न जुडा इस विद्रोह की इस तरह की एक ताकत भी है और एक ऐसी कमजोरी भी हैं जो वास्तविक अर्थों में कोई बुनियादी परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं है और जिसे चंद रियायतों और कुछ दमन से शांत किया जा सकता हैं या दबाया जा सकता हैं जो एक बड़े उफान के बाद आज दिख रहा है. अरब जगत का भावी राजनीतिक मानचित्र इस बात से तय होगा कि यहाँ जिन ताकतों के हित दाँव पर लगे हैं, वे जन विद्रोह के प्रति क्या रुख अपनातें हैं ?
अरब जगत के तानाशाहों का अस्तित्व काफी हद तक पश्चिम के समर्थन पर ही टिका रहा है. इसके तेल संसाधनों पर नियत्रण बनाये रखने के लिया युद्ध छेड़े गए. आज अरब जगत पर सामंती सत्ताओं और अनेक तरह की तानाशाहियों , पश्चिम के आर्थिक और सामरिक हितों और बहुराष्ट्रीय कम्पनिओं के गठजोड़ का नियत्रण है. इसलिए कोई भी वास्तविक परिवर्तन मौजूदा सत्ता समीकरण मैं बदलाव के बिना संभव नहीं दिखता. अरब जगत में नागरिक समाज, सामजिक संगठन और लोकतांत्रिक संस्थाएं लगभग अस्तित्वहीन हैं जो इस विद्रोह को एक मज़बूत आधार प्रदान कर पाती. विद्रोह के प्रारंभिक दौर में केवल अरब तानाशाहियों के ही नहीं बल्कि इजराइल , अमेरिका और तमाम पश्चिमी ताकतों के भी होश उड़ गए थे. उन्हें लगा की अरब जगत को नियंत्रित करने के लिए इन्होने जो तंत्र खड़ा किया है वह धराशाही होने जा रहा है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. अरब तानाशाहों और इनकी सैनिक ताकत इतनी कमज़ोर नहीं है की एक झोके में बिखर जाए . ट्यूनीसिया और मिस्र में तानाशाह चले गए लेकिन जिस व्यवस्था का इन्होनें निर्माण किया वह जस- की -तस है. अन्य अरब देशों ने कुछ प्रतीकात्मक रियाअतें देकर और कुछ दमन के बल पर इस विद्रोह पर अंकुश लगा दिया और अमेरिका और इसके खेमें ने राहत की सांस ली .
आज एक ऐसा परिदृश्य पैदा हुआ है जिसमें एक बार फिर उदार लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए थोड़ी सी जगह बनी है. इसके सामानांतर ऐसी इस्लामी शक्तियों का उदय भी हो रहा है जो धार्मिक कट्टरपंथ के स्थान पर राजनैतिक विविधता को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखाई देतें हैं. मौजूदा जन विद्रोहों का आवेग इतना तेज़ था कि अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देशों के लिए खुल कर इसका विरोध करना संभव नहीं था. लेकिन इस विद्रोह को उनका समर्थन व्यवस्था में बदलाव कि सीमा तक नहीं था.
अमेरिका और पश्चिमी देशों में हमेशा से ही यह धारण मज़बूत रही है कि अरब दुनिया में मौजूदा सत्ताओं का विकल्प केवल इस्लामी कट्टरपंथ है. शीत युद्ध और बाद में आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में पश्चिम ने उद्रार राजनीतिक धाराओं को कमजोर किया और तानाशाहेयों से गढजोड़ कायम किये.लेकिन आतंकवाद के खिलाफ लगभग एक दशक के संगर्ष के उपरान्त अमेरिका में केवल एहसास भी मज़बूत होता जा रहा है कि अरब जगत में वास्तविक स्थायित्व कायम करने के लिए लम्बे समय तक ऐसी तानाशाहेयों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता जिनका जिनका जनाधार निरंतर सिमित होता जा रहा है . काफी समय से यह भी तर्क दिया जाता रहा है कि अमेरिका को ऐसी इस्लामी ताकतों के साथ तालमेल बिठाना आवश्यक है और अरब जगत में में तुर्की जैसा कोई रास्ता अपनाना होगा जिसमें लोकतंत्र , आधुनिकता ओर इस्लाम का समावेश हो .
इराक और अफ्घनिस्तान का अनुभव यही बताता है कि पश्चिम इस रुख के चलते कोई वास्तविक स्थायित्व कायम नहीं कर सकता. आज पश्चिम को एक ऐसा अवसर मिला है जब वह मौजूदा जनविद्रोह से सम्बद्ध ताकतों और इस्लामी धाराओं के गठजोड़ के साथ तालमेल कायम करें और अरब जगत एक ऐसा राजनैतिक मानचित्र के निर्माण में सहयोग दे जिसमें अरब जनता कि आशाओं - आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व हो. अरब जगत में परिवर्तन कि एक प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. युवा अरब उदारवादी और उभरता मध्यमवर्ग इस परिवर्तन का अग्रिम दस्ता है. अरब जगत में एक ऐसे राजनैतिक मानचित्र कि परिकल्पना कि जा सकती है जिसमें इस्लाम, आधुनिकता और लोकतंत्र का समावेश हो जो एक ऐसी व्यवस्था का आधार बने जो अरब जनता के व्यापक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करती हो. विकास पर केन्द्रित कोई भी व्यवस्था या सत्ता मौजूदा दौर में पश्चिम के प्रति एक सीमा से अधिक विरोध या दुश्मनी का रुख नहीं अपना सकती.
धूलिया जी! अरब देशों की छवि शेष विश्व के लोगों की दृष्टि में कुछ अलग सी है । इस विषय पर कुछ और लिखे जाने की अपेक्षा है ।
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