सुभाष धूलिया
किसी भी व्यापक और विविध समाज में जनमत की कोई स्पष्ट अवधारणा निर्धारित करना संभव नहीं है लेकिन मौटे तौर पर यह कह सकते हैं कि किसी भी विषय पर व्यक्तिगत विचारों,दृष्टिकोणों और विशवासों से समान बिन्दुओं और इनकी सामूहिकता ही जनमत है। जनसंचार माध्यम इस सामूहिकता को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं और किन विषयों पर और किस तरह वे अभिव्यक्ति करते हैं इससे भी जनमत प्रभावित होता है। जनसंचार माध्यमों द्वारा जनमत की अभिव्यक्ति और इस अभिव्यक्ति से जनमत का निर्माण एक जटिल प्रकिया है और हाल की के वर्षों की जनसंचार क्रांति से ये प्रकिया और भी जटिल हो गयी है। अनके ऐसे विषय होते हैं जिन पर एक जनमत विकसित होता है और जनसंचार माध्यमों से इसे अभिव्यक्ति मिलती है। लेकिन अनेक विषय ऐसे भी होते हैं जो 'जन' के हिसाब से ज्वलंत हो लेकिन जनसंचार माध्यमों से इन्हें अभिव्यक्ति न मिलती हो।
यहां हम किसी भी विषय पर जनमत और जनसंचार माध्यमों के पारस्परिक संबंधों पर चर्चा करेंगे जिनसे राजनीति और समाज प्रभावित होते हैं। यानी जनमत के वास्तविक जनमत की बजाय उस जनमत की चर्चा करेंगे जो जनसंचार माध्यमों में अभिव्यक्ति पाते हैं और यह एक तरह से प्रभावी और कार्यशील जनमत है जो राजनीति और समाज को प्रभावित करता है। इस कार्यशील और प्रभावी जनमत में जनसंचार माध्यमों की अहम भूमिका होती है। जनसंचार माध्यमों से ही लोगों को किसी विषय के बारे में जानकारी मिलती है जिसमें किसी विषय के बारे में सूचना और विचार और इससे सृजित होने वाला ज्ञान शामिल है। आधुनिक समाज के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि छविओं का संचार है। किसी भी ऐसे विषय के बारे में हम इसके बारे में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही इसकी एक छवि विकसित करते हैं और इस विषय पर यही छवि हमारे लिए यथार्थ होती है। वास्तविक रूप से दुनिया का यह एक छोटा सा ही हिस्सा होता है जो स्वयं हमारे अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के दायरे में होता है और इसके बारे में कोई जानकारी के लिए हम किसी बाहरी सूचना माध्यम पर निर्भर ना होकर खुद ही इसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं। लेकिन हमारे प्रत्यक्ष दायरे की इस छोटी सी दुनिया के बाहर का जो व्यापक संसार है उसके बारे में हमें जो बताया जाता है उसी के अनुसार हम इसके यथार्थ का सृजन करते हैं। किसी भी विषय पर सूचनाएं प्राप्त करने के अनेक साधन हो सकते हैं। संचार के अनेक तरीकों से अनके विषयों के बारे में हमें सूचनाएं मिलती हैं या हम सूचनाएं इकठ्ठा करते हैं। लेकिन हाल ही के वर्षों में किसी भी विषय पर जानकारियां हासिल करने के लिए लोग अधिकाधिक जनसंचार माध्यमो पर निर्भर होते जा रहे हैं। दूनिया में सूचना क्राति के दौरान सूचनाओं का विशाल महासागर पैदा हो गया है लेकिन इसके साथ ही इसके साथ ही हमारे पड़ोस में होने वाली घटनाओं के बारे में भी जानकारी हमें जनसंचार माध्यमों से ही मिलती है और इसी के आधार पर हम कोई मत और दृष्टिकोण विकसित करते हैं। इस संदर्भ में यह भी समझना जरूरी हो जाता है कि जनसंचार माध्यम किन घटनाओं को समाचारीय समझते हैं और फिर हम विषय के किस पहलू को महत्वपूर्ण आंकते हैं।
देश दुनिया में रोज ही घटनाएं होती है और हर घटना के बारे में जानकारियों का अंबार होता है लेकिन जनसंचार माध्यम कुछ ही घटनाओं को समाचारीय मानते हैं और इस घटना के बारे में जानकारियों को समाचार में शामिल करते हैं। इस रूप में विचार और बहस के वही रूप होते हैं जिनके बारे में जनसंचार माध्यम हमें जानकारियां देते हैं। इस दृष्टि से जनसंचार माध्यम एक मध्यस्थ की भूमिका अदा करते हैं और हमें बताते हैं कि देश और दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाएं कौन सी हैं और इन घटनाओं के बारे में जानकारियां का चयन कर इनहें कुछ अर्थ प्रदान करते हैं, एक परिपेक्ष्य में इनका प्रस्तुतीकरण करते हैं। चयन और प्रस्तुतीकरण की इस प्रक्रिया से ही जनसंचार माध्यम हमें बताते हैं कि कौन से विषय महत्वपूर्ण है और इन विषयों के बारे में हमें किस तरह सोचना चाहिए और इस तरह इन विषयों पर एक जनमत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जनसंचार माध्यम हमें भवे ही यह ना बताते हों कि हम क्या सोचें लेकिन काफी हद तक यह बतान में सफल होते हैं कि वो विषय कौन से हैं जिनके बारे में हमें सोचना चाहिए।
इस प्रकिया में जनसंचार माध्यम एक तरह से ऐजेंडा निर्धारित करते हैं-ये तय करते हैं कि आज कौन-कौन से विषय/ मुद्दे हैं जो एक राष्ट्र के रूप में और एक समाज के रूप में हमसे सरोकार रखते हैं। हम कह सकते हैं कि इन विषयों पर इस तरह से सृजित होने वाले जनमत से ही एक समाज,एक राष्ट्र और एक सरकार अपनी प्राथमिकताएं तय करती है। यही जनमत सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करता है और एक लोकतंत्र में इससे अहम भूमिका की अपेक्षा की जाती है। एक लोकतंत्र की अवधारणा का आधार ही यही है कि किसी भी विषय पर लोगों को इतनी पर्याप्त जानकारियां प्राप्त हों कि इस पर वे एक सही मत का निर्माण कर सकें और राजनीतिक जीवन में सक्रिय बन सकें। एक आदर्श स्थिति में लोकतंत्र का मतलब ही यही है कि निर्वाचित सरकार आम लोगों के हितों और सरोकारों का प्रतिनिधित्व करे और एक तरह से आम लोगों का एजेंडा( पब्लिक एजेंडा) ही सरकार का एजेंडा होता है। सराकर के कार्यकाल के लिए पब्लिक एजेंड की इसका जनादेश(मेंडेट) होता है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के नाते जनसंचार माध्यमों का यही कर्तव्य और उत्तरदायित्व होता है कि जब कभी पब्विक एजेंडा और सरकार के एजेंडा में कोई दूरी पैदा हो तो वह इसमें हस्तक्षेप करके इस दूरी पाटने का प्रयास करे। जनसंचार माध्यमों को सरकार के कामकाज के बारे में लोगों को सूचना देना और लोगों के पक्ष में सरकार पर नजर रखना होता है। इस दृष्टि से एक आदर्श स्थिति यही होती है कि पब्लिक एजेंडा,सरकार का एजेंडा और मीडिया एजेंडा में एक परस्पर संवाद बना रहे और एक ऐसा तंत्र अस्तित्व में रहे कि इनके बीच पनपने वाली किसी भी दूरी या विरोधाभास को दूर करने के लिए इनके पैदा होते ही सक्रिय हो उठे। लेकिन आज लोकतंत्र,जनमत और मीडिया के बीच इस तरह के तंत्र के चरित्र और स्वरूप को लेकर ही बहस का बड़ा मुद्दा बन गया है। आज एक तर्क ये भी है कि पब्लिक और सरकार के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका अदा करने की बजाय जनसंचार माध्यम मीडिया का एक अपना एजेंडा भी है। इस तरह जसंचार माध्यम जनमत को प्रतिबिंबित करने से कहीं अधिक जनमत को कुछ खास राजनीतिक और व्यापारिक हितों के अनुरूप ढालने की ओर अधिक झुके हैं। इस तरह आधुनिक जनसंचार माध्यमों में लोकतांत्रिक विमर्श का स्थान सीमित हुआ है या यह कह सकते हैं कि पूरी राजनीति का चरित्र और स्वरूप इस तरह बदल चुका है कि मीडिया की लोकपरिधि के भी वह अर्थ नहीं रह गए हैं जिस रूप में इस परिकल्पना की गयी थी।
एक ओर तो हर तरह का विमर्श अधिकाधिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है तो दूसरी मीडिया का व्यपारीकरण हो रहा है जिसकी वहज से व्यापारीकृत मीडिया विमर्श की बजाय मुनाफा कमाने का उद्यम बन चुका है। आधुनिक समाज में संवाद और विमर्श के अनेक माध्यम लगभग विलुप्त और निष्प्रभावी से हो गए है। एक तर्क तो यहां तक दिया गया कि आज लोकतंत्र भी सिमट कर मीडिया तक ही सीमित हो गया है और इस तरह लोकतंत्र का स्थान मीडियातंत्र ले चुका है। लोकपरिधि की परिकल्पना का सीधा संबंध जनमत और दूसरे माध्यम से लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी को लेकर था लेकिन आज एक ऐसा परिदृष्य पैदा हो रहा है कि किसी विषय के पक्ष में भारी 'जनमत' होने के बावजूद भी पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह जनमत ही है। सहमति के निर्माण की परिकल्पना भी कोई नई नहीं रही है। बहुत पहले भी कहा गया था कि लोकतंत्र में बी एक विशिष्ट जनसंचार माध्यमों के जरिये लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से सहमति ना होने पर भी एक ऐसे विमर्श को जन्म दे सकता है। इस विमर्श को ऐसे रास्ते पर ले जा सकता है कि आखिर में किसी भी विषय पर एक सहमति का निर्माण हो चुका है और इस तरह की निर्मित सहमति ही आधुमिक लोकतंत्र का आधार बन गई है। इसका आशय यह है कि यह सहमति स्वाभाविक रूप से जनस्तर से उभर कर नहीं आयी बल्कि ऊपर से एक विशिष्ट वर्ग ने इसे तैयार किया या यह भी कह सकते हैं कि इसे थोपा। सहमति के निर्माण की इस परिकल्पना में भी हाल ही में भारी परिवर्तन ऐए हैं। अब आधुनिक जनसंचार माध्यम और इनके माध्यम से प्रचारित की गयीं जानकारियां इस कदर विशेषज्ञीकृत हो चुकी है कि इन्हें किसी खास मकसद के लिए खास तरह से ढाल कर लोगों को भ्रमित किया जा सकता है। यहां पर सहमति निर्माण से यहां पर सहमति निर्माण से हटकर स्थिति यह है कि लोगों को किसी विषय पर,किसी ऐसी बात पर विश्वास करने को प्रेरित किया जा सकता है जो सच से कहीं परे हो सकता है। इस तरह की प्रकिया में सूचनाओं पर नियंत्रण और प्रबंध किया जाता है। जनसंपर्क और समार्क सूचना का क्षेत्र आज बहुत परिष्कृत और विशेषज्ञीकृत हो चुका है। सीचना प्रबंधन से आशय यही है कि कुछ खास तरह की सूचनाओं को खास तरह से प्रस्तुत करके एक खास तरह का जनमत तैयार किया जा सकता है। इस संदर्भ में वियतनाम का जनमत स्वाभाविक कहा जा सकता है और इराक युद्ध का जनमत प्रबंधित कहा जा सकता है।
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