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व्यवस्था के भीतर भी
वस्तुपरक और संतुलित रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक है कि सत्ता और पत्रकार के बीच एक ‘सम्मानजक दूरी’ बनाए रखी जाए। लेकिन
आज जो रुझान सामने आ रहे हैं उसमें यह दूरी लगातार कम होती जा रही है और मीडिया पर
सत्ता के प्रभाव में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है और इस व्यवसाय में जनोन्मुखी
तत्वों का ह्रास होता जा रहा है
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मानव सभ्यता के विकास में संचार की अहम
भूमिका रही है। मानव सभ्यता अपने ज्ञान के भंडार को समृद्ध करने और इसके विस्तार
के लिए संचार पर ही निर्भर रही है। विकास की इस प्रक्रिया में युगांतरकारी परिवर्तनों
के साथ संचार प्रणालियों में भी भारी परिवर्तन आए हैं। प्रारंभिक काल में लोग
जितना भी ज्ञान और जानकारियां प्राप्त करते थे उनके लिए उन्हें उसे अपने जीवन और
उसके यथार्थ के तराजू पर तौलना कहीं अधिक आसान होता था। उसके लिए आज की तुलना में
कहीं अधिक गुंजाइश होती थी। ज्ञान के विस्फोट और कई नई प्रौद्योगिकियों के आगमन के
साथ ही संचार प्रक्रिया भी जटिल होती चली गई। आज लोगों को जितना भी ज्ञान और
जानकारियां प्राप्त होती हैं उसका विशाल हिस्सा अत्यंत परिष्कृत प्रौद्योगिकियों
से लैस सूचनातंत्रों से आता है। बहुत कम जानकारियां ऐसी होती हैं जिन्हें लोग अपने
प्रत्यक्ष अनुभव के तराजू पर तौलने की स्थिति में होते हैं।
सूचनाओं और जानकारियों की प्रचुर मात्रा
में उपलब्धता और उनके तीव्र आवेग से इन छवियों के ध्वस्त होने और नई छवियों के
निर्माण की प्रक्रिया भी अत्यंत तेज हो गई है। इससे लोगों के मूल्यों, विश्वासों, विचारों और दृष्टिïकोणों को भी प्रभावित किया जा सकता है।
इस कारण चीजों को देखने के उनके नजरिए और सूचना छवियों के उनके संसार को प्रभावित
करने की आधुनिक सूचनातंत्रों की क्षमता काफी बढ़ गई है।
सूचना के इस युग में जब हम ज्ञान की बात
करते हैं तो वास्तव में हमारा आशय सूचना छवियों से ही होता है। सैद्धांतिक रूप से
ज्ञान की वैधता इसके सच होने में ही निहित होती है। एक व्यक्ति का ज्ञान अपनी
मौलिकता में एक तरह का आत्मपरक ज्ञान ही होता है और इसी के आधार पर वह उन तमाम
विषयों और घटनाओं को देखता है जो विश्व भर में घट रही होती हैं और जिनसे उसका
प्रत्यक्ष रूप से कोई आमना-सामना नहीं होता। किसी विषय और घटना के बारे में नई
सूचनाओं और जानकारियों के मिलने पर उसके बारे में किसी व्यक्ति के ज्ञान में
परिवर्तन हो सकता है और उसकी सूचना छवि का पुनर्निर्धारण हो सकता है।
प्रश्न यह है कि इन सूचनाओं और
जानकारियों को एक व्यक्ति किस हद तक स्वीकार या अस्वीकार करता है और किस हद तक
इसके बारे में उसके ज्ञान में वृद्धि या परिवर्तन होता है और किस तरह और किस हद तक
ये उसकी पहले से निर्मित छवि को प्रभावित करने में सक्षम होती हैं। छवियों के
निर्माण और पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया से लोगों की संपूर्ण सोच में परिवर्तन
आता है। इस परिवर्तन का स्वरूप विशिष्टï सामाजिक
परिस्थितियां ही निर्धारित करती हैं। छवि पर अनेक तरह के संदेश लगातार प्रहार कर
रहे होते हैं। संदेश से आशय चयनित या प्रोसेस्ड सूचनाओं का पैकेज है जो छवि में
परिवर्तन लाने के लिए पूरी सिद्धहस्तता के साथ तैयार किया जाता है।
छवियों के
बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया
जैसा कि इस अध्याय के प्रारंभ में बताया
गया है हम अपने प्रत्यक्ष अनुभव के बाहर की दुनिया के बारे में तमाम जानकारियां
समाचार माध्यमों से प्राप्त करते हैं। इस तरह हम देश-दुनिया के बारे में जो भी
जानते हैं वह एक छवि होती है जिसका गठन हम उन तमाम सूचनाओं के आधार पर करते हैं जो
हमे समाचार माध्यमों से मिलती है। इस दृष्टिïकोण से हम एक तरह से सूचना छवियों की
दुनिया में रहते हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जो भी छवियां हमारे मस्तिस्क
में अंकित है वे वास्विकता के कितने करीब है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि
आधुनिक सूचनातंत्र एक ओर तो हमे ढेर सारी जानकारियां देते है और हमारे ज्ञान में
अत्यधिक वृद्धि करते हैं। लेकिन साथ ही कई विषयों की जो छवियां वे बनाते हैं वे
यर्थात को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं।
सूचना छवियों, इन छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया
और भ्रमों के इस मायाजाल को सूचना के तथाकथित विस्फोट ने और भी जटिल बना दिया है।
सूचना क्रांति के उपरोक्त संदेशों की बमबारी अत्यंत तेज हो गई है जिसका स्वरूप और
दिशा एकतरफा है। आधुनिक सूचनातंत्र आज छवियों को बनाने-बिगाडऩे पर ही केंद्रित हैं
और काफी हद तक इसमें सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक सूचनातंत्र लोगों के दिमाग में एक
ऐसी छवि का निर्माण कर रहे हैं जिनसे अनेक तरह के उत्पादों का बाजार तैयार किया जा
सके और इनमें सबसे ऊपर वैचारिक उत्पाद ही होते हैं।
समाचारों के चयन की प्रक्रिया के कारण
सूचना और जानकारियों का यह प्रवाह किसी भी विषय की संपूर्ण तस्वीर या पूर्ण यथार्थ
को प्रस्तुत नहीं करता। यह किसी भी विषय के किसी खास पहलू के बारे में सूचनाएं और
जानकारियां देता है और इसके कई अन्य पहलुओं की अनदेखी करता है। इस प्रक्रिया से
किसी भी विषय या घटना की खंडित तस्वीर ही प्रस्तुत की जाती है जो अक्सर इसके
संपूर्ण यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाली सूचनाओं और जानकारियों से विहीन होती
है। सूचना छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में आज विकृत और
विखंडित छवियों का व्यापार ही अधिक हावी है।
परंपरागत रूप से सूचना और संचार
प्रक्रिया ही सामाजिक संगठन का आधार रही है। इसमें आदान-प्रदान का तत्त्व अहम
भूमिका अदा करता था। इस आदान-प्रदान से समाज और संस्कृतियों के स्वस्थ विकास का
मार्ग प्रशस्त होता रहा है क्योंकि इसमें किसी तरह की ‘जोर जबर्दस्ती’ के तत्त्व नहीं थे। इसमें छवियों के
निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया एकतरफा नहीं थी। लेकिन सूचना युग में संवाद की
परंपरागत शैली का लगभग अंत सा हो गया है। आधुनिक सूचना और संचारतंत्रों ने इसे
संवाद के बजाए एक बमबारी का रूप दे डाला है जिसमें ‘जोर-जबर्दस्ती’ के तत्त्व मौजूद हैं और यह संवाद न होकर
एकतरफा प्रवाह तक सीमित होकर रह गई है।
सूचना छवियां और
समाचारों का महत्त्व
विश्व की किसी भी घटना की जानकारी सबसे
पहले समाचारों से ही मिलती है। समाचार किसी भी घटना के बारे में जिन तथ्यों को
प्राथमिकता और प्रमुखता देते हैं उसी के अनुसार उस घटना के बारे में लोगों के
मस्तिष्क पर छवियों का निर्माण होता है। समाचार के संदर्भ में ‘घटना’ का उल्लेख इसके समाचारीय होने के आधार
पर किया गया है। समाचारीय घटना सचमुच में कोई घटना भी हो सकती है और विचार तथा कोई
समस्या भी हो सकती है। अनेक तरह के रुझानों और प्रक्रियाओं को भी समाचारीय घटना के
रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ये समाचारीय घटनाएं वे घटनाएं होती हैं जो
अचानक आज ही घटित नहीं होतीं। मसलन राजनीतिक सोच, सामाजिक परिवर्तन, लोगों के दृष्टिïकोण और जीवन शैली में आने वाले बदलाव भी
समाचारीय घटनाएं बनते हैं हालांकि ऐसा रातोंरात घटित नहीं होता बल्कि उन्हें घटित
होने में वर्षों लगते हैं।
विश्व की किसी भी
घटना की जानकारी सबसे पहले समाचारों से ही मिलती है। समाचार किसी भी घटना के बारे
में जिन तथ्यों को प्राथमिकता और प्रमुखता देते हैं उसी के अनुसार उस घटना के बारे
में लोगों के मस्तिष्क पर छवियों का निर्माण होता है। समाचार के संदर्भ में ‘घटना’ का उल्लेख इसके
समाचारीय होने के आधार पर किया गया है।
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सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता है कि
समाचार किसी भी घटना का प्रतिबिंब हैं। यह उस घटना को उसकी संपूर्ण सत्यता और
वस्तुपरकता के आधार पर ही प्रस्तुत करता है। लेकिन दशकों से यह बहस चल रही है कि
समाचार माध्यमों से विश्व भर के अनेक
विषयों की कैसी छवि का निर्माण हो रहा है? मानव समाज में संचार की प्रक्रिया के
माध्यम से निर्मित छवियां ही से एक व्यक्ति के लिए प्रमुख यथार्थ होती हैं। जिस
विषय के बारे में जो सूचना छवि निर्मित कर दी जाती है उस विषय पर उसका यथार्थ वही
होता है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या यथार्थ और समाचार माध्यमों द्वारा निर्मित
उसकी छवियों के बीच अंतर होता है?
फिर
समाचार माध्यमों से मिलने वाली सूचनाओं के प्रेषक भी तो किसी विषय की स्वयं अपनी
ही छवि के आधार पर उसका मूल्यांकन और विश्लेषण करते हैं।
लेकिन जब मामला राजनीतिक और आर्थिक जीवन
के जटिल और विवादास्पद क्षेत्रों तक जाता है तो पत्रकार के उत्पाद के स्वरूप का
निर्धारण स्रोतों के चयन से तय हो जाता है। भारत में भी भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था
उन्मुख परिवर्तनों की रिपोर्टिंग का स्वरूप सूत्रों के चयन से ही तय हो जाता है।
आज किसी भी समाचारपत्र का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि अधिकांश सूचनाएं ऐसी
हैं जिनके स्रोत गुमनाम ही रहना चाहते हैं। इन परिस्थितियों में पत्रकार ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘राजनीतिक सूत्रों’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
अधिकांश जानकारियों के मूल में इसी तरह के स्रोत होते हैं। एक पत्रकार से अपेक्षा
की जाती है कि वह अपने स्रोत की रक्षा करे और अगर वह इसमें विफल होता है तो स्वयं
अपनी साख खोने का जोखिम मोल लेता है। इस तरह के बेनामी सूत्रों से निश्चय ही किसी
भी व्यवस्था में बचा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सच है कि तमाम तरह की गलत
जानकारियां और किसी खास उद्देश्य से प्लांट किए गए समाचार भी इन्हीं स्रोतों की
देन होते हैं।
आखिर कोई स्रोत पत्रकार को सूचना क्यों देना
चाहता है? आदर्श रूप से हर
व्यवस्था में ईमानदार लोग होते हैं जो गलत चीजों का भंडाफोड़ करने के लिए मीडिया
का सहारा लेते हैं। लेकिन समाचार ‘बूम’ के इस युग में ऐसे अवसर अधिक आते हैं जब
सूचना देने वाले स्रोत के मकसद कुछ और ही होते हैं। जब कभी कोई ‘स्रोत’ पत्रकार को ‘समाचार’ देता है जो अधिकांशत: उसके पीछे उसका
अपना कोई उद्देश्य होता है जिसे वह मीडिया का इस्तेमाल कर पूरा करना चाहता है।
ऐसा नहीं है कि पत्रकार इस पहलू से
वाकिफ नहीं होते हैं। एक तो स्थिति यह हो सकती है कि कोई पत्रकार अनचाहे ही इस तरह
के ‘समाचार स्रोत’ द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाए। दूसरा यह
भी है कि तथाकथित बाजार प्रतिस्पर्धा में वह आगे रहना चाहता है और सब कुछ जानते
हुए भी इस तरह के ‘समाचारों’ को लोगों तक पहुंचाने के अपने
व्यावसायिक ‘आकर्षण’ से मुक्त नहीं हो पाता। लेकिन आज मुख्य
रूप से ये दोनों ही परिस्थितियां कम ही देखने को मिलती हैं। एक व्यवस्था द्वारा
निर्धारित सीमाओं के भीतर रहते हुए पत्रकार स्वयं ही उन मर्यादाओं का पालन नहीं कर
पाते जो इस व्यवस्था ने स्वयं ही तय की है।
व्यवस्था के भीतर भी वस्तुपरक और
संतुलित रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक है कि सत्ता और पत्रकार के बीच एक ‘सम्मानजक दूरी’ बनाए रखी जाए। लेकिन आज जो रुझान सामने
आ रहे हैं उसमें यह दूरी लगातार कम होती जा रही है और मीडिया पर सत्ता के प्रभाव
में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है और इस व्यवसाय में जनोन्मुखी तत्त्वों का ह्रïास होता जा रहा है। आज मीडिया और सत्ता
के बीच हेलमेल के संबंध ही अधिक विकसित होते जा रहे हैं। मीडिया संगठनों के
स्वामित्व, उनके मालिकों की
राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं, एक पत्रकार के अपने
संकीर्ण हित जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं तो सत्ता और मीडिया के इन करीबी
नकारात्मक संबंधों को उजागर करते हैं। यहां सवाल सत्ता और मीडिया के संबंधों को
नकारने का नहीं है बल्कि किसी भी लोकतंत्र में इन संबंधों का होना पहली शर्त है।
सवाल इन संबंधों के नकारात्मक स्वरूप का है। इतना ही नहीं इन नकारात्मक संबंधों को
बाकायदा कानूनी और संस्थागत रूप दे दिया गया है।
इस तरह के अनेक रुझान समकालीन
पत्रकारिता में देखे जा सकते हैं। पत्रकारिता पर इस तरह के रुझानों से ‘सरकारी सूत्र’ (व्यापक रूप से सत्ता सूत्र) हावी होते
चले जाते हैं। सरकारी सूत्र निस्संदेह समाचारों के सबसे अहम सूत्र हैं लेकिन इनसे
मिलने वाली हर जानकारी का पत्रकारिता के मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन जरूरी है।
प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष वैचारिक संदेश
समाचारों के माध्यम से संदेश दो तरह से
प्रेषित किए जाते हैं। पहली श्रेणी के संदेश तो वे होते हैं जो ऊपरी तौर पर समाचार
पढऩे या देखने से ही सामने आ जाते हैं। लेकिन समाचारों में अनेक ऐसे निहित संदेश
होते हैं जिनका अर्थ समाचार के वैज्ञानिक विश्लेषण से ही निकाला जा सकता है।
प्रच्छन्न रूप से समाचार जो संदेश देते हैं, उन्हीं में विचारों का तत्त्व अहम होता
है तथा वस्तुपरकता और तथ्यात्मकता के सिद्धांत का संबंध समाचार के प्रत्यक्ष रूप
से ज्यादा है।
पत्रकारिता की पाठ्यपुस्तकों में यह
बताया जाता है कि हर समाचार में ‘कौन’, ‘क्या’, ‘कब’, ‘कहां’, ‘क्यों,’ और ‘कैसे’- का उत्तर होना आवश्यक है तभी ही समाचार
पूर्ण हो पाता है। जब कभी किसी समाचार में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का उत्तर दिया जाता है तो तथ्यों के
विश्लेषण और व्याख्या की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पहले चार प्रश्नों का उत्तर
तैयार करने की समाचार उत्पादन की प्रक्रिया में एक खास तरह के तथ्यों के चयन से
इसमें वैचारिक तत्त्वों का प्रवेश हो जाता है और आखिरी दो प्रश्नों के उत्तर से
समाचार की वैचारिक स्थिति स्पष्टï
रूप
से सामने आ जाती है।
यह वैचारिक स्थिति पहले तो उस व्यवस्था
से ही निर्धारित हो जाती है जिसमें कोई मीडिया संगठन काम करता है। इसके अलावा
मीडिया संगठन के स्वामित्व और पत्रकार की अपनी सोच और दृष्टिïकोण भी समाचार के वस्तुविषय (कंटेंट) को
निर्धारित करते हैं। समाचार में छिपे संदेशों और अर्थों को समझने के लिए विषय, इस विषय के चयन की प्रक्रिया, इसकी शब्दावली और प्रस्तुतीकरण का
विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। इस तरह के विश्लेषण से यह सवाल बार-बार उठता है कि
समाचारों के उत्पादन और प्रवाह की प्रक्रिया के हर चरण में घटनाओं की व्याख्या
प्रभुत्वकारी फ्रेमवर्क को ही अपने उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में सुदृढ़ करती चली
जाती है और हर बदलती स्थिति के साथ इस फ्रेमवर्क में भी परिवर्तन आता रहता है ताकि
इसके स्थायित्व पर कोई आंच न आए।
इस तरह लोगों की सोच को प्रभुत्वकारी
विचारधारा के मुताबिक ढाला जाता है और इस प्रक्रिया में लोगों की कोई वैकल्पिक सोच
विकसित करने की क्षमता का ह्रास होता चला जाता है। साथ ही वैकल्पिक मीडिया और
विचारधारा के पनपने का सामाजिक आधार भी संकुचित होता चला जाता है। इस तरह किसी भी
व्यवस्था में काम करने वाला मीडिया अपने स्वभाव से ही यथा स्थितिवादी होता है।
किसी घटना के समाचार बनने की प्रक्रिया
को करीब से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि समाचार प्रवाह की पूरी प्रक्रिया एक
वैचारिक कार्रवाई है। समाचार अपने उत्पादन प्रक्रिया और तंत्र से ही निर्धारित
होते हैं। इसलिए यह एक ऐसी अंतर्निहित, अनुत्तरित
और निरंतर जारी प्रक्रिया है जिससे सूचनाओं के अंबार को पत्रकारीय ढांचे में
तरह-तरह की तोड़-मरोड़ के साथ प्रस्तुत किया जाता है जिससे यथार्थ की
यथास्थितिवादी आधिकारिक अवधारणा को ही प्रोजेक्ट किया जा सके।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि हर पत्रकार
कोई जानबूझकर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करता है लेकिन उसकी समाचार की अवधारणाएं
और मूल्यों की रचना की पूरी प्रक्रिया उसे यथार्थ को एक खास वैचारिक दृष्टिïकोण से देखने के प्रति अनुकूलित कर देती
है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस अनुकूलन के कारण एक पत्रकार अपने दृष्टिïकोण के अनुसार घटनाओं की वस्तुपरक
रिपोर्टिंग और प्रस्तुतीकरण कर रहा होता है लेकिन अपने अंतिम निष्कर्ष में वह समाज
के एक विशेष वर्ग के हितों और मूल्यों की ही पूर्ति कर रहा होता है।
इस आधार पर स्वभावत: यह सवाल उठता है कि
क्या समाचारों के प्रस्तुतीकरण के वैचारिक चरित्र को तब तक नहीं बदला जा सकता जब
तक मूलभूत सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन न किए जाएं? निश्चय ही अगर ऐसा होता भी है तो भी नई
व्यवस्था की शासक विचारधारा और मूल्यों को ही मीडिया प्रोजेक्ट करेगा और सच्चाई की
तलाश यहीं खत्म नहीं हो जाएगी। मीडिया के संदर्भ में यथार्थ और सच्चाई का संबंध
व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र से है। मीडिया का वस्तुपरक होना भी उतना ही बड़ा
मिथक है कि जितना किसी भी व्यवस्था के संपूर्ण रूप से लोकतांत्रिक होने का मिथक
है।
छवियों के
बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया
जैसा कि प्रारंभ में बताया गया है हम
अपने प्रत्यक्ष अनुभव के बाहर की दुनिया के बारे में तमाम जानकारियां समाचार
माध्यमों से प्राप्त करते हैं। इस तरह हम देश-दुनिया के बारे में जो भी जानते हैं
वह एक छवि होती है जिसका गठन हम उन तमाम सूचनाओं के आधार पर करते हैं जो हमे
समाचार माध्यमों से मिलती है। इस दृष्टिकोण से हम एक तरह से सूचना छवियों की
दुनिया में रहते हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जो भी छवियां हमारे मस्तिष्क में
अंकित है वे वास्विकता के कितने करीब है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि आधुनिक
सूचनातंत्र एक ओर तो हमे ढेर सारी जानकारियां देते है और हमारे ज्ञान में अत्यधिक
वृद्धि करते हैं। लेकिन साथ ही कई विषयों की जो छवियां वे बनाते हैं वे यर्थात को
प्रतिबिंबित नहीं करती हैं।
सूचना छवियों, इन छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया
और भ्रमों के इस मायाजाल को सूचना के तथाकथित विस्फोट ने और भी जटिल बना दिया है।
सूचना क्रांति के उपरोक्त संदेशों की बमबारी अत्यंत तेज हो गई है जिसका स्वरूप और
दिशा एकतरफा है। आधुनिक सूचनातंत्र आज छवियों को बनाने-बिगाडऩे पर ही केंद्रित हैं
और काफी हद तक इसमें सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक सूचनातंत्र लोगों के दिमाग में एक
ऐसी छवि का निर्माण कर रहे हैं जिनसे अनेक तरह के उत्पादों का बाजार तैयार किया जा
सके और इनमें सबसे ऊपर वैचारिक उत्पाद ही होते हैं।
समाचारों के चयन की प्रक्रिया के कारण सूचना
और जानकारियों का यह प्रवाह किसी भी विषय की संपूर्ण तस्वीर या पूर्ण यथार्थ को
प्रस्तुत नहीं करता। यह किसी भी विषय के किसी खास पहलू के बारे में सूचनाएं और
जानकारियां देता है और इसके कई अन्य पहलुओं की अनदेखी करता है। इस प्रक्रिया से
किसी भी विषय या घटना की खंडित तस्वीर ही प्रस्तुत की जाती है जो अक्सर इसके
संपूर्ण यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाली सूचनाओं और जानकारियों से विहीन होती
है। सूचना छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में आज विकृत और
विखंडित छवियों का व्यापार ही अधिक हावी है।
परंपरागत रूप से सूचना और संचार
प्रक्रिया ही सामाजिक संगठन का आधार रही है। इसमें आदान-प्रदान का तत्त्व अहम
भूमिका अदा करता था। इस आदान-प्रदान से समाज और संस्कृतियों के स्वस्थ विकास का
मार्ग प्रशस्त होता रहा है क्योंकि इसमें किसी तरह की ‘जोर जबर्दस्ती’ के तत्त्व नहीं थे। इसमें छवियों के
निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया एकतरफा नहीं थी। लेकिन सूचना युग में संवाद की
परंपरागत शैली का लगभग अंत सा हो गया है। आधुनिक सूचना और संचारतंत्रों ने इसे
संवाद के बजाए एक बमबारी का रूप दे डाला है जिसमें ‘जोर-जबर्दस्ती’ के तत्त्व मौजूद हैं और यह संवाद न होकर
एकतरफा प्रवाह तक सीमित होकर रह गई है।
हालांकि ऐसा भी नहीं
है कि हर पत्रकार कोई जानबूझकर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करता है लेकिन उसकी
समाचार की अवधारणाएं और मूल्यों की रचना की पूरी प्रक्रिया उसे यथार्थ को एक खास
वैचारिक दृष्टिकोण से देखने के प्रति अनुकूलित कर देती है। इस आधार पर यह कहा जा
सकता है कि इस अनुकूलन के कारण एक पत्रकार अपने दृष्टिकोण के अनुसार घटनाओं की
वस्तुपरक रिपोर्टिंग और प्रस्तुतीकरण कर रहा होता है
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इस प्रक्रिया के माध्यम से लोगों को खास
तरह की जानकारी मुहैया कर एक खास तरह की छवि का निर्माण किया जा रहा है। छवियों का
यह निर्माण हाल के वर्षों में मीडिया पर अधिकाधिक निर्भर होता जा रहा है। शहरी
तबकों में आज टेलीविजन देखने में लोग काफी समय व्यतीत करते हैं। कुछ दशक पहले तक
देशों, लोगों, जगहों आदि के बारे में छवियों के
निर्माण की प्रक्रिया काफी हद तक सामाजिक माहौल पर निर्भर होती थी जिसमें परिवार
से लेकर स्कूल तक का संपूर्ण माहौल शामिल है। इस माहौल से भी अनेक गलत छवियां बनती
थीं लेकिन इनकी जड़ें बहुत गहरी नहीं होती थीं और लोगों की सोच में एक खुलापन
दिखता था। वे किसी भी विषय पर नई सूचनाओं और जानकारियों को प्राप्त करने के लिए
तत्पर रहते थे। आज के मीडिया ने लोगों को उनके अपने इस माहौल से ही काट दिया है।
लोगों के जीवन में मीडिया का हस्तक्षेप इस कदर बढ़ता जा रहा है कि सामाजिक माहौल
को भी यही नियंत्रित करने लगा है।
मीडिया के वैश्वीकरण और खास तौर से
उपग्रह टेलीविजन के हाल के वर्षों में हुए तेजतर विकास से सूचना छवियों के
निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में इस माध्यम की भूमिका अहम हो गई है। आज
पश्चिमी वर्चस्व वाले टेलीविजन चैनल विश्व भर में छा गए हैं और विकासशील देशों के
शहरी क्षेत्रों में इनकी खासी पहुंच कायम हो चुकी है। जाहिर है कि इनके तमाम
प्रोग्राम पश्चिमी चश्मे से ही विश्व को देखते हैं और इसी के अनुसार अनेकानेक
विषयों के बारे में सूचनाएं और जानकारियां देते हैं। आज के मीडिया बाजार में
पश्चिमी उत्पादों की ही बहुलता है। टेलीविजन माध्यम का काफी स्थानीयकरण भी हुआ है
लेकिन सूचना छवियों के निर्धारण में पश्चिमी मूल्यों का वर्चस्व और प्रतिमानों का
नियंत्रण इन पर भी स्पष्टï रूप से देखा जा सकता
है।
सूचनाओं की
प्रोसेसिंग
अनेक विषयों के बारे में सूचनाओं और
जानकारियों के लिए लोग मीडिया पर ही मुख्य रूप से निर्भर होते हैं। ये सूचनाएं और
जानकारियां कई स्तरों पर वैचारिक प्रोसेसिंग के बाद ही उपभोक्ताओं तक पहुंचती हैं।
लोगों के पास अन्य तरह की सूचनाएं और जानकारियां हासिल करने का कोई वैकल्पिक साधन
नहीं होता। फिर उनके पास वैकल्पिक जानकारियां हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास
करने का कोई कारण भी नहीं होता। इस तरह विश्व के बारे में सूचनाओं और जानकारियों
के साधनों पर एकाधिकार के कारण यथार्थ की छवि को अधिकाधिक क्षत-विक्षत करना आसान
हो जाता है। इस तरह मीडिया यथार्थ की जो छवि प्रस्तुत करता है वह अधिकाधिक कृत्रिम
यथार्थ की ओर उन्मुख होता है। इस प्रक्रिया में मीडिया के यथार्थ और वास्तविक
यथार्थ के बीच की दूरी का विस्तार होता चला जाता है।
विश्वीकृत मीडिया हजारों घटनाओं की
अनदेखी कर चंद घटनाओं की ही जानकारी देता है और फिर इन घटनाओं के बारे में भी
सूचनाओं और जानकारियों के भंडार में से एक छोटे से अंश का ही प्रयोग करता है जिसका
विश्व भर में व्यापक पैमाने पर वितरण कर ‘अनुकूल’ छवियां प्रस्तुत की जाती हैं। मीडिया का
प्रभाव इस कारण भी अधिक हो जाता है क्योंकि उपभोक्ताओं के पास वैकल्पिक सूचना
स्रोत नहीं होते हैं। इस तरह लोग मीडिया के यथार्थ को ही वास्तविक यथार्थ के रूप
में स्वीकार करने को मजबूर होते हैं। इस मामले में टेलीविजन अन्य माध्यमों की
अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली साबित होता है क्योंकि इसके पास अपने यथार्थ को
पुख्ता करने के लिए ‘जीवंत तस्वीरों’ के रूप में ‘ठोस सबूत’ होते हैं।
मीडिया द्वारा परोसी गई सामग्री के आधार
पर ही किसी देश, संस्कृति या किसी भी
अन्य विषय की प्रभुत्वकारी छवि का निर्माण होता है। इन छवियों के आधार पर ही इनको
विषयों से संबंधित कर कार्रवाई का परिप्रेक्ष्य निर्धारित होता है। विश्व पटल पर
किसी भी तरह की राजनीतिक, आर्थिक या सैनिक
कार्रवाई को लोग अंतर्राष्टï्रीय यथार्थ से
संबद्ध न कर इस यथार्थ की बनी अपनी छवि के माध्यम से देखते हैं और इसी के अनुरूप
इस पर अपनी सहमति या असहमति की मोहर लगाते हैं। इस तरह मीडिया एक अंतर्राष्टï्रीय छवि निर्माता की भूमिका अदा करता
है।
मीडिया संगठन बाजार प्रतियोगिता में प्रतिद्वंदी
होते हैं लेकिन व्यवस्था की विचारधारा और मूलभूत अवधारणाओं को लेकर उनके बीच पूरी
सहमति होती है। स्वयं का उनका अस्तित्व इस व्यवस्था से संबद्ध होता है। इस कारण वे
बाजार व्यवस्था से बाहर का कोई विकल्प पेश
नहीं करते बल्कि इसके मातहत ही विविधता का बखान करते हैं। इस तरह समकालीन विश्व के
अहम और टकराववादी मसलों पर विश्वीकृत मीडिया की सोच और समझ में कोई मूलभूत अंतर
नहीं होता और बाजार प्रतियोगिता अधिकाधिक सनसनीखेज और अतिरंजित होने की ओर ही अधिक
उन्मुख होती हैं।
समाचारों के संदर्भ में यह प्रतियोगिता
सनसनीखेज अधिक होती है जबकि अन्य मीडिया प्रोग्रामिंग में सस्ते मनोरंजन की ओर ही
अधिक उन्मुख होती हैं। विश्व राजनीति और सत्ता संघर्ष आज इन्हीं सूचना छवियों पर
टिकी है। किसी देश के खिलाफ अगर किसी महाशक्ति को कोई सैनिक कार्रवाई करनी हो तो
पहले इस देश की ऐसी छवि का निर्माण आवश्यक हो जाता है जिससे लोगों को यह सैनिक
कार्रवाई वाजिब प्रतीत हो।
सूचना छवियां और
समाचारों का महत्व
विश्व की किसी भी घटना की जानकारी सबसे
पहले समाचारों से ही मिलती है। समाचार किसी भी घटना के बारे में जिन तथ्यों को
प्राथमिकता और प्रमुखता देते हैं उसी के अनुसार उस घटना के बारे में लोगों के
मस्तिष्क पर छवियों का निर्माण होता है। समाचार के संदर्भ में ‘घटना’ का उल्लेख इसके समाचारीय होने के आधार
पर किया गया है। समाचारीय घटना सचमुच में कोई घटना भी हो सकती है और विचार तथा कोई
समस्या भी हो सकती है। अनेक तरह के रुझानों और प्रक्रियाओं को भी समाचारीय घटना के
रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ये समाचारीय घटनाएं वे घटनाएं होती हैं जो
अचानक आज ही घटित नहीं होतीं। मसलन राजनीतिक सोच, सामाजिक परिवर्तन, लोगों के दृष्टिïकोण और जीवन शैली में आने वाले बदलाव भी
समाचारीय घटनाएं बनते हैं हालांकि ऐसा रातोंरात घटित नहीं होता बल्कि उन्हें घटित
होने में वर्षों लगते हैं।
सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता है कि
समाचार किसी भी घटना का प्रतिबिंब हैं। यह उस घटना को उसकी संपूर्ण सत्यता और
वस्तुपरकता के आधार पर ही प्रस्तुत करता है। लेकिन दशकों से यह बहस चल रही है कि
समाचार माध्यमों से विश्व भर के अनेक
विषयों की कैसी छवि का निर्माण हो रहा है? मानव समाज में संचार की प्रक्रिया के
माध्यम से निर्मित छवियां ही से एक व्यक्ति के लिए प्रमुख यथार्थ होती हैं। जिस
विषय के बारे में जो सूचना छवि निर्मित कर दी जाती है उस विषय पर उसका यथार्थ वही
होता है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या यथार्थ और समाचार माध्यमों द्वारा निर्मित
उसकी छवियों के बीच अंतर होता है?
फिर
समाचार माध्यमों से मिलने वाली सूचनाओं के प्रेषक भी तो किसी विषय की स्वयं अपनी
ही छवि के आधार पर उसका मूल्यांकन और विश्लेषण करते हैं।
व्यापारीकृत मीडिया ने बाजार की तथाकथित
आवश्यकताओं तथा लोगों की रुचियों को जिस रूप में निर्धारित किया है उसी पैमाने पर
कुछ घटनाएं समाचार बनती हैं और इस समाचार में भी घटना के बारे में चंद जानकारियों
का ही चयन होता है जो उपरोक्त कसौटी पर खरे उतरते हों। किसी भी समाचारीय घटना के
बारे में बहुतायत जानकारियां नदारद होती हैं।
समाचार उत्पादन की प्रक्रिया
एक पत्रकार उन जानकारियों को ही समाचार
में शामिल करता है जो उसकी स्वयं की समाचार अवधारणाओं और मूल्यों पर खरी उतरती
हैं। फिर उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते अनेक चरणों में इस समाचार रूपी सूचना पैकेज
की रीपैकेजिंग और प्रोसेसिंग होती है। इससे यथार्थ और छवि के बीच अंतर बढ़ता चला
जाता है और संभव है कि उपभोक्ता तक पहुंचने वाली सूचनाएं संपूर्ण यथार्थ की
प्रतिनिधित्व न करती हों और इस तरह इसकी एक विकृत छवि पैदा करती हों। समाचारों की
दुनिया वास्तव में सूचना छवियों की ही दुनिया है। इसकी संचार प्रक्रिया में शामिल
सभी कडिय़ां अपने-अपने दृष्टिïकोण से यथार्थ को
देखती हैं और इसका विश्लेषण और व्याख्या करती हैं।
किसी भी समाचार माध्यम का यह दावा खोखला
होता है कि उसने किसी घटना या विषय के केंद्रीय तत्त्वों और प्रतिनिधित्वपूर्ण
सूचनाओं के जरिए यथार्थ की सही छवि प्रस्तुत की है क्योंकि कोई समाचार माध्यम
समाचारों और इनसे निर्मित होने वाले छवियों के बारे में पहले से निर्धारित मूल्यों
का पालन करता है और हर घटना को एक खास वैचारिक स्थिति से देखता है। इन जटिल प्रक्रियाओं
से गुजरने के बाद अधिकांशत: समाचार यथार्थ की एक खंडित और भ्रमपूर्ण छवि का ही
निर्माण करते हैं और इस यथार्थ के एक खास हिस्से को प्रोजेक्ट करते हंै और शेष
हिस्सों के बारे में कोई जानकारी न देकर सूचना छवि को यथार्थ से और भी दूर ले जाते
हंै।
एक दृष्टिकोण से किसी विषय के बारे में
एक तरह की जानकारियां अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं तो दूसरे दृष्टिकोण से संभव है
महत्त्वपूर्ण जानकारियां इससे एकदम भिन्न हों या फिर चंद ही समानताएं हों और
विषमताएं अधिक। मूल प्रश्न यही है कि किसी
घटना या विषय के बारे में किस तरह के तथ्यों का चयन समाचार के लिए किया जाता है और किस आधार पर इससे कहीं अधिक
तथ्यों को समाचार में शामिल करने योग्य नहीं माना जाता।
मीडिया द्वारा निर्मित किसी घटना की
विखंडित छवि ही उपभोक्ता के लिए संपूर्ण यथार्थ होती है। इस दृष्टिï से किसी भी विषय पर प्राप्त किया गया
ज्ञान अनेक सीमाओं में बंधा होता है। समाचारों के माध्यम से किसी विषय की वस्तुपरक
छवि प्रेषित करने का दावा किया जाता है। आदर्श रूप से समाचार में विचार नहीं होते।
समाचार तथ्यपरक होते हैं। इससे इन्हें विश्वसनीयता और एक तरह की वैज्ञानिकता का
दर्जा प्राप्त हो जाता है। समाचार किसी भी विषय की जैसी छवि पैदा करते हैं वह इस
विषय पर अन्य तमाम तरह की मीडिया प्रोग्रामिंग को निर्धारित करती हैं। समाचारों से
उत्पन्न छवियां ही अनेक रूपों में इसके नाटकीय रूपांतरण की दिशा तय करती हैं। इस
तरह वस्तुपरक और तथ्यपरक रूप से प्रस्तुत कोई भी विषय इसी छवि के अनुसार कल्पित
मीडिया प्रोग्रामिंग - चाहे वह कोई सीरियल हो या फीचर फिल्म- को भी निर्धारित करता
है।
सूचना छवियां यथार्थ को प्रतिबिंबित
करने के बजाए इसकी आभासी प्रतिबिंब मात्र होती हैं। आज समाचारों को लेकर सर्वत्र
यह स्वीकार कर लिया गया है कि इनका ऐसा कोई प्रस्तुतीकरण हो ही नहीं सकता जो समान
रूप से सबको वस्तुपरक लगे। इसलिए समाचारों की दुनिया में आज इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है कि समाचारों का चयन और
उनका प्रस्तुतीकरण ऐसा होना चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को यह वस्तुपरक प्रतीत
हो। स्वभावत: कोई भी समाचार संगठन अपने उपभोक्ताओं के वस्तुबोध (परसेप्शन) के
संदर्भ में ही वस्तुपरकता का अधिकतम स्तर हासिल करने का प्रयास करता है। इस
सिद्धांत के पालन और उल्लंघन से ही किसी भी समाचार संगठन की साख बनती या बिगड़ती
है। लेकिन समाचार उत्पादन से संबद्ध लोग भली-भांति जानते हैं कि लोगों के सामने जो
पेश किया जा रहा है वह संपूर्ण घटना का एक अंश मात्र ही है।
टेलीविजन माध्यम की आंख कैमरा होता है।
एक समय टेलीविजन माध्यम की संपूर्णता के बारे में यह दावा किया जाता था कि ‘ घटना को सीधे घटते देखिए।’ आज सर्वविदित है कि टेलीविजन के परदे पर
प्रस्तुत की जाने वाली तस्वीरें एक बड़े घटनाक्रम की चंद ‘आकर्षक तस्वीरों और बाइट’ से बढक़र कुछ नहीं हैं। एक कैमरामैन किसी
भी सामान्य घटना की पांच से पंद्रह मिनट तक की वीडियो टेप लाता है लेकिन एक आधे
घंटे के समाचार बुलेटिन में आम तौर पर इसका 50-60 सेकेंड से अधिक उपयोग नहीं होता।
आज प्रतियोगिता के कारण हर टेलीविजन चैनल
इस वीडियो टेप की उस क्लिपिंग को ही प्रस्तुत करने की ओर उन्मुख होता है जिसमें
सनसनीखेज और एक्शन का तत्त्व सर्वाधिक हो। घटना की संपूर्णता के संदर्भ में वीडियो
क्लिपिंग का चयन नहीं के बराबर होता है।
फिर आज नई-नई तरह की वीडियो
प्रौद्योगिकियां उपलब्ध हैं जिनसे कैमरे के एक खास तरह के इस्तेमाल से यथार्थ की
छवि में तोड़-मरोड़ की जा सकती है। ‘घटना’ से कैमरे की दूरी, उसकी किसी खास कोणीय स्थिति से ‘यथार्थ’ से अलग छवि का निर्माण किया जा सकता है।
सैद्धांतिक रूप से यह मान्यता है कि
किसी भी समाचार को निष्पक्ष ढंग से प्रस्तुत किया जाए। निष्पक्षता का पैमाना यही
है कि इससे संबद्ध हर पक्ष को समाचार में उसके महत्त्व के अनुसार स्थान मिले।
लेकिन व्यवहार में इस सिद्धांत का पालन लगभग नामुमकिन है। खास तौर पर जब किसी
समाचार के अनेक पक्ष हों। मुख्य रूप से एकपक्षीय समाचारों में निष्पक्षता का
सिद्धांत लागू किया जा सकता है। समाचारों के संकलन, जांच-पड़ताल, तथ्यों का विश्लेषण, इनके प्रस्तुतीकरण की पूरी प्रक्रिया
इतनी जटिल है और राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक
मूल्यों से इस कदर जकड़ी हुई है कि वस्तुपरकता और निष्पक्षता किताबी शब्द बनकर रह
जाते हैं। हर मीडिया संगठन अपने परिवेश के अनुसार ही वस्तुपरकता और निष्पक्षता के
मानदंड निर्धारित करता है ताकि अपने उपभोक्ताओं के संदर्भ में वह वस्तुपरक हो बल्कि
वस्तुपरक प्रतीत हो और उसकी साख बनी रहे।
क्या कोई पत्रकार अपने आपको किसी घटना
के प्रति निरपेक्ष रख सकता है? उत्तर निश्चय ही
नकारात्मक है। ऐसी कोई स्थिति हो ही नहीं हो सकती जहां से किसी भी समाचारीय घटना
को निरपेक्ष भाव से देखा जा सकता हो।
जाहिर है कि अगर समान
सामाजिक माहौल में वस्तुपरकता की इतनी अवधारणाएं हों तो वस्तुपरकता वास्तव में एक
मिथक ही है। संतुलन का संबंध घटना से संबद्ध सभी पक्षों के दृष्टिकोण को देना भर
है जबकि वस्तुपरकता का सरोकार एक पत्रकार की सोच, उसके दृष्टिकोण, उसके विचार से है जिन्हें उसने रातोंरात
विकसित नहीं किया बल्कि जो बचपन से ही घर, स्कूल और समाज के माहौल में विकसित हुए।
हम देश-दुनिया के
बारे में जो भी जानते हैं वह एक छवि होती है जिसका गठन हम उन तमाम सूचनाओं के आधार
पर करते हैं जो हमे समाचार माध्यमों से मिलती है। इस दृष्टिकोण से हम एक तरह से
सूचना छवियों की दुनिया
में रहते हैं। अब
प्रश्न यह पैदा होता है कि जो भी छवियां हमारे
मस्तिष्क में अंकित
है वे वास्विकता के कितने करीब है?
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आशय यह है कि सैद्धांतिक रूप से
वस्तुपरकता को परिभाषित नहीं किया जा सकता लेकिन इसका मतलब यह भी है कि इसकी एक
कार्यात्मक (फंक्शनल) परिभाषा संभव है जो हर संदर्भ में उसी के अनुरूप निर्धारित
होती हैं। इसका आशय यह भी है कि वस्तुपरकता न होते हुए भी महसूस की जा सकती है
लेकिन इसकी अवधारणा एक सामाजिक दायरे के भीतर ही तय होती है जो पहले से ही
निर्धारित और सीमित होता है। इन्हीं सीमाओं के भीतर पत्रकार वस्तुपरकता की अपनी
अवधारणा को निर्धारित और परिभाषित करता है और किसी भी समाचार संगठन से जुड़े तमाम
पत्रकार एक ‘कामन फ्रेम ऑफ
रेफरेंस’ में काम करते हैं।
पहले से ही तयशुदा वैचारिक स्थिति से ये वस्तुपरकता की एक समान अवधारणा विकसित कर
लेते हैं जो स्वभावत: संपूर्ण यथार्थ के अनेक संदर्भों से कटी होती है।
वस्तुपरकता का सबसे विकृत रूप उन अंतर्राष्ट्रीय
घटनाओं की रिपोर्टों में बहुत स्पष्ट
रूप
से झलकता है जो विकासशील देशों के बारे में पश्चिमी देशों के पत्रकारों द्वारा
तैयार की जाती हैं। विकासशील देशों की घटनाओं को वे पश्चिमी समाज के नजरिए और
स्वयं अपने ‘कंडिशंड’ मस्तिष्क से परखते हैं। यही कारण है कि
पश्चिम नियंत्रित अंतर्राष्ट्रीय मीडिया विकासशील देशों की खंडित और विकृत छवियों
का निर्माण करता है और घटनाओं के घटने के समाजशास्त्र को नजरअंदाज करता है।
समाचार संकलन की प्रक्रिया में
पत्रकारों और समाचार स्रोतों का संबंध इस वैचारिक पेशे का एक अहम क्षेत्र है।
समाचार संकलन के लिए स्रोतों की जरूरत पड़ती है। पश्चिमी तर्ज पर ढली पत्रकारिता
की मान्यता है कि स्रोत अच्छे हों तो समाचार भी अच्छा होगा। लेकिन साथ ही स्रोतों
का यह खेल इस व्यवसाय से संबद्ध जोखिमों से भरा है। परंपरागत रूप से पश्चिमी
पत्रकारिता यही दावा करती है कि सूचना का स्रोत देना आवश्यक है। स्रोत भी ऐसा हो
जो इस सूचना के देने की योग्यता रखता हो। स्रोत के बिना समाचार की प्रामाणिकता को
धक्का पहुंचता है। साख पर आंच आती है। लेकिन स्रोतों के इस जटिल तंत्र में आज
पत्रकारिता में अनेक विकृतियां भी पैदा हुई हैं। दुर्घटना जैसी घटनाओं पर तो स्रोतों
की पहचान करना कोई कठिन नहीं है। प्रशासन, राहत कार्य में लगी एजेंसियां, अस्पताल, घायल लोग, मौके पर उपस्थित लोग जैसे अनेक स्रोतों
को स्पष्टï रूप से प्रामाणिक
स्रोत माना जा सकता है।
लेकिन जब मामला राजनीतिक और आर्थिक जीवन
के जटिल और विवादास्पद क्षेत्रों तक जाता है तो पत्रकार के उत्पाद के स्वरूप का
निर्धारण स्रोतों के चयन से तय हो जाता है। भारत में भी भूमंडलीकरण और मुक्त
अर्थव्यवस्था उन्मुख परिवर्तनों की रिपोर्टिंग का स्वरूप सूत्रों के चयन से ही तय
हो जाता है। आज किसी भी समाचारपत्र का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि अधिकांश
सूचनाएं ऐसी हैं जिनके स्रोत गुमनाम ही रहना चाहते हैं। इन परिस्थितियों में
पत्रकार ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘राजनीतिक सूत्रों’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
अधिकांश जानकारियों के मूल में इसी तरह के स्रोत होते हैं। एक पत्रकार से अपेक्षा
की जाती है कि वह अपने स्रोत की रक्षा करे और अगर वह इसमें विफल होता है तो स्वयं
अपनी साख खोने का जोखिम मोल लेता है। इस तरह के बेनामी सूत्रों से निश्चय ही किसी
भी व्यवस्था में बचा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सच है कि तमाम तरह की गलत
जानकारियां और किसी खास उद्देश्य से प्लांट किए गए समाचार भी इन्हीं स्रोतों की
देन होते हैं।
आखिर कोई स्रोत पत्रकार को सूचना क्यों
देना चाहता है? आदर्श रूप से हर
व्यवस्था में ईमानदार लोग होते हैं जो गलत चीजों का भंडाफोड़ करने के लिए मीडिया
का सहारा लेते हैं। लेकिन समाचार ‘बूम’ के इस युग में ऐसे अवसर अधिक आते हैं जब
सूचना देने वाले स्रोत के मकसद कुछ और ही होते हैं। जब कभी कोई ‘स्रोत’ पत्रकार को ‘समाचार’ देेता है जो अधिकांशत: उसके पीछे उसका
अपना कोई उद्देश्य होता है जिसे वह मीडिया का इस्तेमाल कर पूरा करना चाहता है।
ऐसा नहीं है कि पत्रकार इस पहलू से
वाकिफ नहीं होते हैं। एक तो स्थिति यह हो सकती है कि कोई पत्रकार अनचाहे ही इस तरह
के ‘समाचार स्रोत’ द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाए। दूसरा यह
भी है कि तथाकथित बाजार प्रतिस्पर्धा में वह आगे रहना चाहता है और सब कुछ जानते
हुए भी इस तरह के ‘समाचारों’ को लोगों तक पहुंचाने के अपने
व्यावसायिक ‘आकर्षण’ से मुक्त नहीं हो पाता। लेकिन आज मुख्य
रूप से ये दोनों ही परिस्थितियां कम ही देखने को मिलती हैं। एक व्यवस्था द्वारा
निर्धारित सीमाओं के भीतर रहते हुए पत्रकार स्वयं ही उन मर्यादाओं का पालन नहीं कर
पाते जो इस व्यवस्था ने स्वयं ही तय की है।
व्यवस्था के भीतर भी वस्तुपरक और
संतुलित रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक है कि सत्ता और पत्रकार के बीच एक ‘सम्मानजक दूरी’ बनाए रखी जाए। लेकिन आज जो रुझान सामने
आ रहे हैं उसमें यह दूरी लगातार कम होती जा रही है और मीडिया पर सत्ता के प्रभाव
में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है और इस व्यवसाय में जनोन्मुखी तत्वों का ह्रास होता जा रहा है। आज मीडिया और सत्ता के बीच
हेलमेल के संबंध ही अधिक विकसित होते जा रहे हैं। मीडिया संगठनों के स्वामित्व, उनके मालिकों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं, एक पत्रकार के अपने संकीर्ण हित जैसे
तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं तो सत्ता और मीडिया के इन करीबी नकारात्मक संबंधों को
उजागर करते हैं। यहां सवाल सत्ता और मीडिया के संबंधों को नकारने का नहीं है बल्कि
किसी भी लोकतंत्र में इन संबंधों का होना पहली शर्त है। सवाल इन संबंधों के
नकारात्मक स्वरूप का है। इतना ही नहीं इन नकारात्मक संबंधों को बाकायदा कानूनी और
संस्थागत रूप दे दिया गया है।
इस तरह के अनेक रुझान समकालीन
पत्रकारिता में देखे जा सकते हैं। पत्रकारिता पर इस तरह के रुझानों से ‘सरकारी सूत्र’ (व्यापक रूप से सत्ता सूत्र) हावी होते
चले जाते हैं। सरकारी सूत्र निस्संदेह समाचारों के सबसे अहम सूत्र हैं लेकिन इनसे
मिलने वाली हर जानकारी का पत्रकारिता के मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन जरूरी है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वैचारिक संदेश
समाचारों के माध्यम से संदेश दो तरह से
प्रेषित किए जाते हैं। पहली श्रेणी के संदेश तो वे होते हैं जो ऊपरी तौर पर समाचार
पढऩे या देखने से ही सामने आ जाते हैं। लेकिन समाचारों में अनेक ऐसे निहित संदेश
होते हैं जिनका अर्थ समाचार के वैज्ञानिक विश्लेषण से ही निकाला जा सकता है।
प्रच्छन्न रूप से समाचार जो संदेश देते हैं, उन्हीं में विचारों का तत्त्व अहम होता
है तथा वस्तुपरकता और तथ्यात्मकता के सिद्धांत का संबंध समाचार के प्रत्यक्ष रूप
से ज्यादा है।
पत्रकारिता की पाठ्यपुस्तकों में यह
बताया जाता है कि हर समाचार में ‘कौन’, ‘क्या’, ‘कब’, ‘कहां’, ‘क्यों,’ और ‘कैसे’- का उत्तर होना आवश्यक है तभी ही समाचार
पूर्ण हो पाता है। जब कभी किसी समाचार में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का उत्तर दिया जाता है तो तथ्यों के
विश्लेषण और व्याख्या की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पहले चार प्रश्नों का उत्तर
तैयार करने की समाचार उत्पादन की प्रक्रिया में एक खास तरह के तथ्यों के चयन से
इसमें वैचारिक तत्त्वों का प्रवेश हो जाता है और आखिरी दो प्रश्नों के उत्तर से
समाचार की वैचारिक स्थिति स्पष्टï
रूप
से सामने आ जाती है।
यह वैचारिक स्थिति पहले तो उस व्यवस्था
से ही निर्धारित हो जाती है जिसमें कोई मीडिया संगठन काम करता है। इसके अलावा
मीडिया संगठन के स्वामित्व और पत्रकार की अपनी सोच और दृष्टिïकोण भी समाचार के वस्तुविषय (कंटेंट) को
निर्धारित करते हैं। समाचार में छिपे संदेशों और अर्थों को समझने के लिए विषय, इस विषय के चयन की प्रक्रिया, इसकी शब्दावली और प्रस्तुतीकरण का
विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। इस तरह के विश्लेषण से यह सवाल बार-बार उठता है कि
समाचारों के उत्पादन और प्रवाह की प्रक्रिया के हर चरण में घटनाओं की व्याख्या
प्रभुत्वकारी फ्रेमवर्क को ही अपने उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में सुदृढ़ करती चली
जाती है और हर बदलती स्थिति के साथ इस फ्रेमवर्क में भी परिवर्तन आता रहता है ताकि
इसके स्थायित्व पर कोई आंच न आए।
इस तरह लोगों की सोच को प्रभुत्वकारी
विचारधारा के मुताबिक ढाला जाता है और इस प्रक्रिया में लोगों की कोई वैकल्पिक सोच
विकसित करने की क्षमता का ह्रïास होता चला जाता है।
साथ ही वैकल्पिक मीडिया और विचारधारा के पनपने का सामाजिक आधार भी संकुचित होता
चला जाता है। इस तरह किसी भी व्यवस्था में काम करने वाला मीडिया अपने स्वभाव से ही
यथा स्थितिवादी होता है।
किसी घटना के समाचार बनने की प्रक्रिया
को करीब से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि समाचार प्रवाह की पूरी प्रक्रिया एक
वैचारिक कार्रवाई है। समाचार अपने उत्पादन प्रक्रिया और तंत्र से ही निर्धारित
होते हैं। इसलिए यह एक ऐसी अंतर्निहित, अनुत्तरित
और निरंतर जारी प्रक्रिया है जिससे सूचनाओं के अंबार को पत्रकारीय ढांचे में
तरह-तरह की तोड़-मरोड़ के साथ प्रस्तुत किया जाता है जिससे यथार्थ की
यथास्थितिवादी आधिकारिक अवधारणा को ही प्रोजेक्ट किया जा सके।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि हर पत्रकार
कोई जानबूझकर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करता है लेकिन उसकी समाचार की अवधारणाएं
और मूल्यों की रचना की पूरी प्रक्रिया उसे यथार्थ को एक खास वैचारिक दृष्टिकोण से
देखने के प्रति अनुकूलित कर देती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस अनुकूलन
के कारण एक पत्रकार अपने दृष्टिकोण के अनुसार घटनाओं की वस्तुपरक रिपोर्टिंग और
प्रस्तुतीकरण कर रहा होता है लेकिन अपने अंतिम निष्कर्ष में वह समाज के एक विशेष
वर्ग के हितों और मूल्यों की ही पूर्ति कर रहा होता है।
इस आधार पर स्वभावत: यह सवाल उठता है कि
क्या समाचारों के प्रस्तुतीकरण के वैचारिक चरित्र को तब तक नहीं बदला जा सकता जब
तक मूलभूत सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन न किए जाएं? निश्चय ही अगर ऐसा होता भी है तो भी नई
व्यवस्था की शासक विचारधारा और मूल्यों को ही मीडिया प्रोजेक्ट करेगा और सच्चाई की
तलाश यहीं खत्म नहीं हो जाएगी। मीडिया के संदर्भ में यथार्थ और सच्चाई का संबंध
व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र से है। मीडिया का वस्तुपरक होना भी उतना ही बड़ा
मिथक है कि जितना किसी भी व्यवस्था के संपूर्ण रूप से लोकतांत्रिक होने का मिथक
है।
प्रोफेसर सुभाष
धूलिया उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति हैं. वे इग्नू और
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में जर्नलिज्म के प्रोफेसर रह चुके हैं.
एकेडमिक्स में आने से पहले वे दस वर्ष
पत्रकार भी रहे हैं .
great Article
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