Tuesday, 31 May 2011

पाकिस्तान : नाभिकीय ब्लैकमेल आत्मघाती होगा

सुभाष धूलिया

पाकिस्तान अपने इतिहास में हमेशा से ही संकटग्रस्त रहा है और इसका हर संकट पहले के संकट से अधिक गहरे होते चले गए. आज का संकट तो ऐसा है कि यहाँ तक कहा जा रहा है की पाकिस्तान एक विफल राज्य की और अग्रसर है जहाँ कानून का राज ख़त्म हो जाता है और सिविक सोसायटी और हर जनसंघठन अस्तित्वविहीन हो जातें हैं . सलमान रश्दी ने तो यहीं तक कह डाला के पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित कर दिया जाना चाहिए . पाकिस्तान के भीतर ही कहा जा रहा है कि अब अमेरिका का अगला निशाना पाकिस्तान का सैनिक प्रतिष्ठान और इसके नाभिकीय हथियार होंगे . यह आशंका कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि हाल ही मैं पाकिस्तान के प्रधान मंत्री गिलानी ने संसंद को संबोधित करते कहा कि पाकिस्तान की "सामरिक सम्पतियों" के ध्वस्त करने के प्रयास का मुहंतोड़ जवाब दिया जायेगा.
पाकिस्तान की संसद के संयुक्त अधिवेशन में सैनिक खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने सेना का पक्ष रखा. संसद ने सेना और ख़ुफ़िया एजेंसी पर अपना पूरा विश्वास जताया और एक प्रस्ताव पास कर पाकिस्तान में इस तरह के सैनिक कार्रवाई दुबारा होने के स्थिथि में गंभीर परिणामों के चतावनी दी और यहाँ तक कहा है की ऐसी किसी भी कार्रवाई के पूरी दुनिया के लिए विनाशकरी परिणाम होंगे -क्या पाकिस्तान अपने आप को आतंकवाद से साफ-सुथरा करने के बजाय नाभिकीय युद्ध के धमकी दे रहा है ? अब तक पाकिस्तान भारत के साथ नाभिकीय ब्लैकमेल का सहारा लेता रहा और आब पूरी दुनिया को धमकी दे डाली है. इस तरह का नाभिकीय ब्लैकमेल संकटग्रस्त पाकिस्तान को काफी भरी पड़ सकता है. . पाकिस्तान संसद सरकार , सेना और कुख्यात आई एस आई के रुख से लगता है के सैन्य प्रतिष्टान पर अमेरिका का निशाना एक वास्तविक सम्भंवना है.
पाकिस्तानी संसद ने सरकार को अधिकार दिया है के वह अफगानिस्तान में नाटो -अमेरिके सेना पाकिस्तान के रास्ते होने वाली को सोजो-सामान की आपूर्ति बंद कर सकती है. अमेरका अफगान युद्ध के लिए पाकिस्तान के रास्ते होने वाली आपूर्ति पर पूरी तरह निर्भर हैं. ओसामा के पाकिस्तान में होने के कारण पहले ही पहले हे अमेरिका में पाकिस्तान को लेकर बहुत नाराजगी है और पाकिस्तान को दी जाने वाली अरबों डॉलर के मदद में कटोती के मांग उठ रही है. ऐसे में आपूर्ति का रास्ता बंद करने की धमकी एक अधकचरे नेतृत्व को ही अधिक उजागर करता है. पाकिस्तान को तो उन तमाम देशों से माफ़ी मागनी चाहिए जिन पर इसकी धरती से आतंकवादी हमले हुए हैं.
एक बार जब पाकिस्तान में अमेरिका -विरोधी इस्लामी उग्रवाद इतने चरम पर था और पाकिस्तान सरकार इस पर नियंत्रण करने में असमर्थ सी दिख रही थी तब भी खबरें थीं कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में विशेष दस्ते तैनात कर दिए हैं जो जरुरत पड़ने पर पाक नाभिकीय हथियारों पर नियंत्रण कायम कर लेंगे. अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में ये डर रहा है की कहीं आतंकवादियों के हाथ नाभिकीय हथियार न आ जायें और जब भी ये आशंका होती है, हर निगाह पाकिस्तान की तरफ जाती है . पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश हैं जिसे नाभिकीय स्मगलर का ख़िताब मिला है . और पाकिस्तान ही दुनिया कि एकमात्र ऐसी नाभिकीय शक्ति है जो इन विनाशकारी हथियारों के प्रयोग करने कि धमकियाँ देती है . एक ऐसे कमजोर और नेतृत्वविहीन देश के नाभिकीय हथियार दुनिया के लिए खतरा बन रहे हैं. ऐसे मैं ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के तले पाया जाना पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी हैं.

लादेन का मारे जाने के प्रतीकात्मक अर्थ अधिक हैं. आखिर वह आंतकवादी युद्ध के मैंदान मे 'सेना' का नेतृत्व नहीं कर रहा था, बल्कि एक कोने में छिपा अपनी जन बचा रहा था. पाक-अफगान भूभाग में धार्मिक उग्रवाद के जड़ों व्यापक और घहरीं हैं और पाकिस्तान का मौजूदा रुख इस पर अंकुश के लिए अनुकूल नहीं है जब कि इसकी सबसे बड़ी मार पाकिस्तान पर ही पड़ रही हैं और पड़ने जा रही है . अफगान सीमा पर स्थिस्ति लगातर बिगड़ रही है . लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने पर अफगान राष्ट्रपति करज़ई ने कहा की इससे उनकी ये बात सही साबित हो गयी हैं की आतंकवाद से लड़ने के लिए उनके देश के गाँव और गरीवों के खिलाफ युद्ध निरर्थक है और आतंकवाद का असली गढ़ पाकिस्तान हैं और युद्ध वहां छेड़ा जाना चाहिए. अफगान सीमा पर रोजमर्रा अमेरिकी ड्रोन हवाई हमलें हो रहे हैं . पाकिस्तान की प्रभुसत्ता मजाक बनकर रह गयी है. बलूचिस्तान विद्रोह के कगार पर है . भारी सैनिक व्यय से शिक्षा-स्वस्थ जैसे सामाजिक क्षेत्र हासिये पर चले गए हैं. सत्ता का कोई एक केंद्र नहीं है . सिमित लोकतंत्र के नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ मैं है जिंसी न कोई साख हैं और न हे कोई खास जनाधार है सिविक सोसाइटी और अन्य जन संगठन धार्मिक उग्रवाद के जबड़ों मैं फंसे हैं . नब्बे के दशक मैं अफगानिस्तान पर प्रभुत्व कायम करने के लिए पक्सितन ने तालिबान को खड़ा किया और 9 / 11 के बाद ये राजनितिक निवेश ध्वस्त हो गया. आज पाकिस्तान के पास कोई अफगान रणनीति नहीं है. करज़ई तालिबान के एक तबके से साथ सुलह करने मैं लगे हैं. पाकिस्तान हक्कानी गुट के साथ मिलकर विकल्प बनाने मैं लगा है और लादेन के मरे जाने के एकदम बाद अमेरिका ने हक्कानी गुट पर पावंदी लगा दी है. जुलाई मैं अमेरिका अफगानिस्तान से हटना शुरू कर देगा और 2014 तक पूरी तरह हट जाने की योजना है . इस बीच अफगानिस्तान में नयी सत्ता का निर्माण होना है और पाकिस्तान अलग थलग पड़ रहा है. अफगानिस्तान में अब तक भारत पुनर्निर्माण के कार्यों पर हे केन्द्रित रहा है ओरे अफगानिस्तान राजीनीतिक प्रक्रिया से अलग रहा या रखा गया . खुद अमेरिका ने पाकिस्तान को खुस रखने के लिए भारत को इससे अलग रखा. अब कुछ बदलता दिख रहा है और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह अभी अभी अफगानिस्तान की एक सफल यात्रा से लौटें हैं.

पाकिस्तान में मौजूद विशाल आतंकीतंत्र जिसे पाक सैनिक और आई यस आई के प्रभावशाली तबकों का संरक्षण प्राप्त है जिनके बदौलोत लादेन इतने वर्षों तक वहां छिपा रहा . अब अमेरिका पाकिस्तान को किस रूप मैं अफगान राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल रखना चाहेगा ? भारत ने लादेन के मरे जाने पर एक संतुलत रुख अपनाया और पाकिस्तान-विरोधी उन्मादीयों को दरकिनार रखा . इससे पाकिस्तान का परपरागत भारत-विरोधी हथियार भी जाया हो गया. अब इस देश के पास क्या विकल्प हैं? पाकिस्तान में ऐसी कौन से सत्ता है जो इस देश को नेतृत्व से सके? एक संकटग्रस्त देश नेतृत्वविहीन है मौजूदा पाकिस्तान पूरी दुनिया के लिए खतरा बनता जा रहा है.

पड़ोस का सर्द-गर्म युद्ध और भारतीय विदेश नीति

सुभाष धूलिया

आज भारत का सामना एक ऐसे पाकिस्तान से है जो इससे पहले कभी अस्तित्व में नहीं था. आज पाकिस्तान के साथ संबंधों में हार-जीत के अर्थ बदल चुकें हैं. अब एक दूसरे को कमजोर करने का मतलब खुद को कमजोर करना होगा. पाकिस्तान आज स्वयं से युद्धग्रस्त है और पाकिस्तान को लेकर भारत के हित इस इस रूप में दाँव पर लगे हैं कि पाकिस्तान के भीतर चल रहे युद्ध में किन ताकतों के विजय होती है. इस दौर में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य यही होना चाहिए की पाकिस्तान में ऐसी शक्तियों ताकत न मिले जिनकी राजनीति भारत-विरोधी उन्माद पर टिकी है.

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह सैनिक शक्ति आज बेबस है. आज हर पाकिस्तनी देशभक्त को शर्मशार और अपमानित होना चाहिए. शर्मशार इसलिए के दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी पांच सालों से उसके सिरहाने तले छिपा बैठा रहा और अपमानित इसलिए के अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. एक राष्ट्र का अपमानित और बेबस होने के अपने ही खतरे हैं. आज पाकिस्तान की इस हालत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार इसका सैनिक और खुफिया तंत्र है जिसके कुछ प्रभावशाली तबके धार्मिक उग्रवाद को पनाह देते रहे हैं . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ? पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता का नियंत्रण इन्ही 'सुरक्षित' हाथों में है जिन्होंने हर सामरिक युद्ध मैं पराजय झेली है और केवल आतंकवादी युद्धों में ही 'विजय' का दावा कर सकतें हैं . यही वह पाकिस्तानी सत्ता है जिसने इतिहास में हर संकट की घडी में राष्ट्रवाद के उन्माद की आड़ में सत्ता हड़पी और इस पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए भारत-विरोधी उन्माद का सहारा लिया. स्वाभातावा अमेरिकी आक्रमण के उपरांत राष्ट्रवाद का उफान आया है और एक बार फिर इस गुमराह राष्टवाद के घोड़े पर सवार होने की कोशिश करेगी जो पहले ही शुरू हो चुकी है और आने वाले दिनों में भारतीय सीमा और खास तौर से कश्मीर मैं सीमा पर झड़पें हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पाकिस्तान में आज के कशमश की स्तिथि होनी चाहिए. अगर पाक के एक देश के रूप में कोई भविष्य हैं तो भारत-विरोधी उन्माद की टक्कर में एक ऐसे विवेकशील नेतृत्व का अस्तित्व होना चाहेए जो भारत से सहयोग का रास्ता अपनाकर पाक को इस संकट से निकलने के लिए के लिए किसी रास्ते का निर्माण करे . पाकिस्तान का भविष्य इस कशमकश के परिणाम पर निर्भर करता है .

कुछ ख़ास ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण, भारत में भी एक प्रभावशाली पकिस्तान-विरोधी तबका अस्तित्व में रहा है जो समय समय पर पाकिस्तान के प्रति भारतीय नीति को प्रभावित करता रहा है. 9 /11 और 26 /11 और हाल ही में अमेरिकी सैनिक कारवाही जैसी परिस्थितियों में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कमर कस लेता है. भारतीय मीडिया का एक तबका भी पाकिस्तान-विरोधी उन्माद का शिकार रहा है जो पाकिस्तान हे नहीं चीन के साथ संबंधों को लेकर भी अनावश्यक राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करता रहा है. सच तो यह है की भारत के भीतर पाकिस्तान- विरोधियों और पाकिस्तान के भीतर भारत-विरोधियों की कभी भी कमी नहीं रही और दोनों देशो की विदेश नीति पर इनका प्रभाव भी कभी कम नहीं रहा. लेकिन आज की स्थिति में 'विरोध' ये परंपरागत समीकरण बिखर चुके हैं और इसी के अनुरूप विदेश नीति को बदलना होगा जिससे पाकिस्तान के भीतर के भारत-विरोधियो को पराजित किया जा सके. आखिर आज भारत उस पाकिस्तान से रूबरू नहीं है जो 1947 में अस्तित्व में आया था बल्कि यह एक ऐसा पाकिस्तान है जिसका बिखरना भारत के लिए एक बड़ा खतरा होगा . अमेरिकी कारवाही के एक दम बाद भारतीय सैनिक नेतृत्व ने कुछ ऐसे बयान दिए जिनसे पाकिस्तान के भारत- विरोधी उन्मादियों को ताकत मिली. लेकिन इसके एकदम बाद राजनैतिक नेतृत्व ने विवेक का परिचय दिया और स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा की भारत अमेरिका नहीं है और न ही भारत के तौर-तरीके अमेरिका जैसे हैं. उन्होंने पाकिस्तान के साथ मौजूदा राजनैतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर जोर दिया.


ऐतिहासिक रूप से एक अपमानित देश में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आयें हैं. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के अपमान ने दुसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में अपमानित जापान अलग ही रास्ता अपनाने को मजबूर था. अपमानित पाकिस्तान कौन सा रास्ता अपनाएगा -यह इस बात पे निर्भर करता है की पाकिस्तान के भीतर चल रही कशमकश में कौन सा पक्ष मजबूत होकर उभरता है. आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. पाकिस्तान में इस्माली उग्रवाद गहरी जड़े जमा चूका है जिसका इस्तमाल सैनिक प्रतिष्ठान ने भारत के खिलाफ और अफगानिस्तान पर प्रभुत्वा कायम करने के लिए लिया. लेकिन अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है.

ऐसी परोस्थितियाँ कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है.

इसलिए एकदम पड़ोस में भड़क रहे इस सर्द-गर्म और जटिल युद्ध के प्रति भारत को एक नयी नीति का सृजन करना होगा जिसमें अलगाव भी न हो और ऐसा जुडाव भे न हो की दीर्घकालीन हितों पर चोट पहुंचे और कुछ ऐसी समस्याएं भारत के दरवाजे पर आज टपकें जिन्हें दूर रखा जा सकता है. पुराने राजनीतिक और सामरिक समीकरण ध्वस्त हो चुकें हैं और नए उभर रहे हैं जिनका सामना करने के लिए नयी नीति और नए दृष्टिकोण की जरुरत है -जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है.

अरब वसंत के फीके होते रंग

सुभाष धूलिया
इस वसंत में लगभग हर अरब देश में भड़के जनविद्रोह ने अनेक परंपरागत राजनैतिक समीकरणों को ध्वस्त कर दिया. ट्यूनीशिया और मिस्र के सर्वशक्तिमान दिखने वाले तानाशाहों को सत्ता छोडनी पड़ी. यमन , बहरीन, सीरिया, मोरक्को, जोर्डन, इराक और लेबनान भले ही विरोध प्रदर्शन इस तरह की सफलता हासिल न कर पाए हो लेकिन यह स्पष्ट हो गया है कि इन देशो की सत्ताएं राजनैतिक रूप से कितनी खोखली और कमज़ोर हैं जिनका अस्तित्व सिर्फ सैनिक ताकत पर टिका है. लीबिया में सरकार ने जन विद्रोह को कुचलने के लिए जनसहार का रास्ता अपनाया और आज वह पश्चिमी देशों के हवाई हमलों से जूझ रहा है. इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है की सैनिक ताकत के बल पर किस हद्द तक नागरिक और राजनैतिक समाज को दबाकर रखा है. मौजूदा जन विद्रोहं इसी दमित समाज का उफान है जिसका नेतृत्व एक शिक्षित और नयी संचार प्रौद्योगिकी से लैस उस युवा के हाथ में है जिसे किसी भी स्थापित राजनैतिक विचारधारा या संगठन से संबद्ध नहीं किया जा सकता .
यह भ्रष्ट तानाशाहों के खिलाफ युवा पीड़ी का विद्रोह है . इस विद्रोह में न तो धर्म था और न ही इजराइल और अमेरिका के विरोध के स्वर हैं जो हमेशा ही अरब प्रतिरोध- विरोध के केंद्र में रहे हैं. इस विद्रोह के पीछे कोई संगठित नेतृत्व नहीं था जो किसी वैकल्पिक व्यवस्था की रचना कर पाता. इसलिए इस प्रारंभिक चरण में यह विद्रोह उस मकसद को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाया जिसकी इसके फूटने के वक्त आशा की गयी थी. अरब जगत की किसी भी राजनीतिक धारा और किसी खास विचारधारा से न जुडा इस विद्रोह की इस तरह की एक ताकत भी है और एक ऐसी कमजोरी भी हैं जो वास्तविक अर्थों में कोई बुनियादी परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं है और जिसे चंद रियायतों और कुछ दमन से शांत किया जा सकता हैं या दबाया जा सकता हैं जो एक बड़े उफान के बाद आज दिख रहा है. अरब जगत का भावी राजनीतिक मानचित्र इस बात से तय होगा कि यहाँ जिन ताकतों के हित दाँव पर लगे हैं, वे जन विद्रोह के प्रति क्या रुख अपनातें हैं ?

अरब जगत के तानाशाहों का अस्तित्व काफी हद तक पश्चिम के समर्थन पर ही टिका रहा है. इसके तेल संसाधनों पर नियत्रण बनाये रखने के लिया युद्ध छेड़े गए. आज अरब जगत पर सामंती सत्ताओं और अनेक तरह की तानाशाहियों , पश्चिम के आर्थिक और सामरिक हितों और बहुराष्ट्रीय कम्पनिओं के गठजोड़ का नियत्रण है. इसलिए कोई भी वास्तविक परिवर्तन मौजूदा सत्ता समीकरण मैं बदलाव के बिना संभव नहीं दिखता. अरब जगत में नागरिक समाज, सामजिक संगठन और लोकतांत्रिक संस्थाएं लगभग अस्तित्वहीन हैं जो इस विद्रोह को एक मज़बूत आधार प्रदान कर पाती. विद्रोह के प्रारंभिक दौर में केवल अरब तानाशाहियों के ही नहीं बल्कि इजराइल , अमेरिका और तमाम पश्चिमी ताकतों के भी होश उड़ गए थे. उन्हें लगा की अरब जगत को नियंत्रित करने के लिए इन्होने जो तंत्र खड़ा किया है वह धराशाही होने जा रहा है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. अरब तानाशाहों और इनकी सैनिक ताकत इतनी कमज़ोर नहीं है की एक झोके में बिखर जाए . ट्यूनीसिया और मिस्र में तानाशाह चले गए लेकिन जिस व्यवस्था का इन्होनें निर्माण किया वह जस- की -तस है. अन्य अरब देशों ने कुछ प्रतीकात्मक रियाअतें देकर और कुछ दमन के बल पर इस विद्रोह पर अंकुश लगा दिया और अमेरिका और इसके खेमें ने राहत की सांस ली .


आज एक ऐसा परिदृश्य पैदा हुआ है जिसमें एक बार फिर उदार लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए थोड़ी सी जगह बनी है. इसके सामानांतर ऐसी इस्लामी शक्तियों का उदय भी हो रहा है जो धार्मिक कट्टरपंथ के स्थान पर राजनैतिक विविधता को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखाई देतें हैं. मौजूदा जन विद्रोहों का आवेग इतना तेज़ था कि अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देशों के लिए खुल कर इसका विरोध करना संभव नहीं था. लेकिन इस विद्रोह को उनका समर्थन व्यवस्था में बदलाव कि सीमा तक नहीं था.

अमेरिका और पश्चिमी देशों में हमेशा से ही यह धारण मज़बूत रही है कि अरब दुनिया में मौजूदा सत्ताओं का विकल्प केवल इस्लामी कट्टरपंथ है. शीत युद्ध और बाद में आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में पश्चिम ने उद्रार राजनीतिक धाराओं को कमजोर किया और तानाशाहेयों से गढजोड़ कायम किये.लेकिन आतंकवाद के खिलाफ लगभग एक दशक के संगर्ष के उपरान्त अमेरिका में केवल एहसास भी मज़बूत होता जा रहा है कि अरब जगत में वास्तविक स्थायित्व कायम करने के लिए लम्बे समय तक ऐसी तानाशाहेयों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता जिनका जिनका जनाधार निरंतर सिमित होता जा रहा है . काफी समय से यह भी तर्क दिया जाता रहा है कि अमेरिका को ऐसी इस्लामी ताकतों के साथ तालमेल बिठाना आवश्यक है और अरब जगत में में तुर्की जैसा कोई रास्ता अपनाना होगा जिसमें लोकतंत्र , आधुनिकता ओर इस्लाम का समावेश हो .

इराक और अफ्घनिस्तान का अनुभव यही बताता है कि पश्चिम इस रुख के चलते कोई वास्तविक स्थायित्व कायम नहीं कर सकता. आज पश्चिम को एक ऐसा अवसर मिला है जब वह मौजूदा जनविद्रोह से सम्बद्ध ताकतों और इस्लामी धाराओं के गठजोड़ के साथ तालमेल कायम करें और अरब जगत एक ऐसा राजनैतिक मानचित्र के निर्माण में सहयोग दे जिसमें अरब जनता कि आशाओं - आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व हो. अरब जगत में परिवर्तन कि एक प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. युवा अरब उदारवादी और उभरता मध्यमवर्ग इस परिवर्तन का अग्रिम दस्ता है. अरब जगत में एक ऐसे राजनैतिक मानचित्र कि परिकल्पना कि जा सकती है जिसमें इस्लाम, आधुनिकता और लोकतंत्र का समावेश हो जो एक ऐसी व्यवस्था का आधार बने जो अरब जनता के व्यापक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करती हो. विकास पर केन्द्रित कोई भी व्यवस्था या सत्ता मौजूदा दौर में पश्चिम के प्रति एक सीमा से अधिक विरोध या दुश्मनी का रुख नहीं अपना सकती.