Wednesday 23 February 2011

अपने आप से डरा एक साम्राज्य

सुभाष धूलिया


शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद के दशक में विजय के उफान में सरोवर अमेरिका ने एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना बुना जिसमें अमेरिका के प्रभुत्व के लिए कभी कोई चुनौती न उभर पाए । इस दौरान अनके बहसें चलीं । एक तर्क था की शीत युद्ध में पश्चिम की विजय का अर्थ हैं कि पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थ व्यवस्था का मानव सभ्यता के विकास का अंतिम पड़ाव है इस इसका अब कोई विकल्प शेष नहीं रहा गया है । एक नयी अमेरिकी सदी का सपना बुना गया और ये तर्क दिया गया की अब अमेरिका को अपनी बेमिसाल सैनिक ताकत का इस्तेमाल दुनिया के "सभ्य और लोकत्रांत्रिक" बनाने के लिए करना चाहिए । 9 /11 हमलों के उपरांत अमेरिका जे अपना प्रभुत्व पुख्ता करने के लिए पहले अफगानिस्तान और फिर इराक के खिलाफ प्रत्यक्ष सैनिक अभियान छेड़े सुरक्षा परिषद् को दरकिनार किया और तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने ऐलान किया की अमेरिका कहीं भी किसी खतरे के संभावना पैदा होने पर भी इसे सैनिक ताकत से कुचल देगा । 9 /11 के बाद पूरी दुनिया जो अमेरिका के साथ खडी थी, बुश के इस एलान से सहम सी गयी ।


लेकिन दुनिया में लोकत्रंत्र के निर्यात का यह प्रोजेक्ट और "लोकत्रांत्रिक साम्राज्य" कायम करने का अभियान अपने शुरूआती दौर में ही चरमरा गया । पहले अफगानिस्तान और फिर इराक में लोकत्रंत्र तो दूर न्यूनतम स्थायित्व कायम करना भी संभव नहीं दीखता और अमरीकी सेना को हटाना ही कठिन हो गया है और पूरा प्रोजक्ट एक साम्राजवादी कब्जे जैसा ही अधिक दिखता है । भले हे सैनिकों के कटौती के बातें के जा रहीं हैं पर यह निश्चित जान पड़ता है के इन दोनों देशों पर अमेरिका नियंत्रण नहीं छोड़ेगा और लम्बे समय तक अमेरिकी सैनिक यहाँ बने रहेंगे ।

शीत युद्ध के बाद के अमेरिका और आज के अमेरिका में भारी अंतर दिखाई पड़ता है । चंद दिनों पहले राष्ट्रपति ओबामा के "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण का मूल्याकन अगर 9 /11 बाद के तमाम अभिभाषणओं के संदर्भ में किया जाये तो ये अंतर स्पष्ट हो जाता है । 2002 में बुश युद्ध की दहाड़ लगा रहे थे वहीँ आज ओबामा कह रहे हैं की अमेरिका "गूगल और फेसबुक का राष्ट्र " है । पिछले वर्ष अपने "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण में ओबामा ने कहा था की "दुनिया में अमेरिका का दूसरा स्थान हो- ये हमें स्वीकार्य नहीं है " और आज जब वे ये कहते हैं के अमेरिका को चीन, यूरोप और अन्य आर्थिक प्रतिद्वंदीयों से आगे बनाये रखने के लिए अनुसन्धान , प्रोद्योगिकी और शिक्षा पर ध्यान देना होगा । अमेरिका 2002 के 'हार्ड' से 2011 आते आते तक इतना 'सोफ्ट' क्यों और कैसे हो गया ? ओबामा 'परिवर्तन' और 'आशा' के नारों पर चुनाव जीते लेकिन आज अमेरिका में हुए अनेक जनमत संग्रहों से पता चलता हैं की भविष्य को लेकर अमेरिकीयों का विश्वास डगमगा रहा है ।

आम अमेरिकी और भी अधिक निराश है । आशा और परिवर्तन के ओबामा के नारे 2009 की मंदी और इसके बाद से ही उठ रहे आर्थिक संकटों के दलदल में समां गए हैं । अमेरिकी सत्ता और समाज के विभिन्न तबकों के बीच के अंतर्विरोध तेज़ हो रहे हैं । अमेरिका के बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्ठान, निर्वाचित सरकार और आम अमेरिकी के हितों में हमेशा से ही टकराव रहा है लेकिन आज यह टकराव एक ऐसे मुकाम पर जाता नज़र आता है जहाँ से परंपरागत सत्ता समीकरण को बदले बिना तालमेल बिठाये मुश्किल दिखाई पड़ता है । अमेरिकी समाज और व्यवस्था के मौजूदा संकट से उभरने के लिए अमेरिकी सरकार को बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्टान और आम अमेरिकी के हितों के बीच तालमेल बिठाये रखना कठिन होता जा रहा है ।

ओबामा का अभिभाषण अमेरिकी व्यवस्था और समाज के इन अंतर्विरोधों को ही अधिक अभिव्यक्त करतें हैं। दुनिया भर में फैला अमेरिकी साम्राज्य आज एक बार फिर अनुसन्धान , प्रौद्योगिकी और शिक्षा के अपनी ताकत के पुराना धरातल पर लौट रही है। इसी धरातल से अमेरिकी ताकत और अमेरिकी साम्राज्य का उदय हुआ था। आज का अमेरिका क्यों दुनिया के हर कोनें के अपने सैनिक अड्डों, सागर- महासागर में तैनात अपने जंगी बेड़ों और विनाशकारी नाभिकीय हथियारों से लैश अपनी मिशाइलओं की ताकत का अहंकार त्याग कर अपने आप को गूगल और फेसबुक की धरती बता कर अपनी ताकत का एहसास करा रहा है ।


निश्चय ही आज भी अमेरिका के ताकत बेमिसाल है । कोई भी अन्य ताकत अपने बूते के बजाय अमेरिकी ताकत मैं ह्रास के कारण ही इसके समकक्ष खड़ी हो सकती है । ऐसे में अमेरिका की वर्चस्व को चुनौती बाहर से नहीं अपने अन्दर से ही है । इतनी विशाल आर्थिक ताकत के बावजूद आम अमेरिकी के कष्ट बढ़ते हे जा रहे हैं भले ही आज दुनिया कितनी हे क्यों न बदल रही हो पर अमेरिकी ताकत को बाहर से कम और भीतर से अधिक खतरा नज़र आता है । अमेरिकी प्रशासन आम अमेरिकी के समस्याओं को संबोधित करने में विफल हो रहा है अमेरिका और अमेरिके व्यवस्था दोनों हे आज एक नहीं अनेक संकटों से घिरें हैं ये संकट सतही नहीं बुनियादी हैं और इन पर पार पाने के लिए बुनियाद पर चोट करनी होगी और ये साम्राज्य इतना विशाल है और इसका सत्ता समीकरण इतने जटिल हैं कि ऐसा करना ओबामा या किसी भी अन्य राष्ट्रपति के लिए आसन नहीं है ।


मौजूदा आर्थिक संकट कहीं से भी ठहरने का नाम नहीं ले रहा है। अमेरिकी आर्थिक ताकत दुनियां में एक मुक्त वैश्विक बाज़ार पर टिकी है लेकिन दुनिया भर में और ख़ास तौर से यूरोप में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय हो रहा है और अनेक देश भूमंडलीकरण के मौजूदा प्रारूप से हटकर संरक्षणवाद का रास्ता बना रहे हैं जिससे मुक्त वैश्विक व्यवस्था पर खतरे के बदल मंडरा रहें हैं और इस तरह की स्थिति अमेरिका के लिए सबसे अधिक कठिन होगी । आज दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है और जाहिर है हर बदलाव के साथ तालमेल बिठाने उसे ही सबसे अधिक कशमकश का सामना करना होगा जिसके पास अपार शक्ति केन्द्रित है । नयी दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के इसी एतिहासिक द्वन्द में ही आज का अमेरिका फंसा है ।

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